जिस दौर में दुनिया भर में विज्ञान नई ऊंचाइयां छू रहा है, नई-नई तकनीकों के जरिए मनुष्य के लिए जोखिम वाले कामों को आसान बनाने के दावे किए जा रहे हैं, उस समय भी हमारे देश में सफाई का काम करते हुए लोगों की जान चली जाती है। सीवर की सफाई के दौरान होने वाली मौतों पर लंबे समय से गहरी चिंता जताई जाती रही है, इस पर पाबंदी भी लगाई जा चुकी है, फिर भी अक्सर सफाई कर्मियों के मरने की खबरें आती रहती हैं।

इसका अफसोसनाक पहलू यह भी है कि इस तरह होने वाली मौतों पर सरकार और संबंधित महकमों का रवैया पर्याप्त संवेदनशील नहीं होता है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतों को लेकर एक अहम आदेश जारी किया है। अदालत ने कहा है कि अब सरकारी अधिकारियों को सीवर सफाई के दौरान जान गंवाने वाले व्यक्ति के परिवार को तीस लाख रुपए का मुआवजा देना होगा। इसके अलावा, अगर यह काम करते हुए कोई कामगार स्थायी दिव्यांगता का शिकार हो जाता है, तो उसे कम से कम बीस लाख रुपए का भुगतान करना होगा।

यह छिपा नहीं है कि इस तरह की सफाई के लिए जिन लोगों को सीवर में उतारा जाता है, वे समाज के सबसे हाशिये के वर्गों से आते हैं और पहले ही वहां उन्हें बहुस्तरीय उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। फिर जो लोग उनसे यह काम कराते हैं, उन्हें उनकी सुरक्षा के बारे में फिक्र करने की जरूरत नहीं महसूस होती।

वरना क्या वजह है कि जहरीली गैसों के जोखिम से भरे हुए सीवर में उतरने वाले लोगों को गैस-मास्क या अन्य सुरक्षा उपकरण मुहैया नहीं कराए जाते? इतना तय है कि यह काम कराने की जिम्मेदारी आमतौर कर नगर निगम या अन्य संबंधित सरकारी महकमों के अधिकारियों की होती है। मगर जब इस दौरान हादसा होता है, उसमें मजदूरों की जान चली जाती है या कोई व्यक्ति किसी अंग से लाचार हो जाता है, तब या तो उसे पर्याप्त मुआवजा नहीं मिलता या फिर इसकी जिम्मेदारी सरकार पर आ जाती है। कानून का उल्लंघन करने वाले अधिकारी कई बार बचे रह जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट का आदेश इस लिहाज से अहम है कि इसमें मुआवजे के मामले में सरकारी अधिकारियों की भी जिम्मेदारी तय की गई है।

इंसानों से गहरे नालों या सीवर की सफाई कराने पर करीब दस वर्ष पहले प्रतिबंध लगा दिया गया था। मगर आए दिन सीवर में उतरने वाले लोगों की मौत की घटनाओं से साफ है कि यह कानून शायद सिर्फ दस्तावेजों में सिमटा हुआ है। देश में आज भी हजारों लोग सीवर की सफाई करने के लिए हर तरह की जोखिम के बीच उनमें उतरने पर मजबूर हैं।

इस मसले पर पूछे गए सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने लोकसभा में बताया था कि पिछले पांच सालों में सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान पूरे देश में तीन सौ उनतालीस लोगों की मौत के मामले दर्ज किए गए। सवाल है कि जब ऐसा काम कराना न केवल अमानवीय हो, बल्कि प्रतिबंधित भी हो, वह खुलेआम कैसे होता रहता है और उसे पूरी तरह रोकना किसकी जिम्मेदारी है? जिस दौर में बहुत सारे इंसानी काम मशीनों और रोबोट से कराए जाने को विज्ञान और तकनीक की उपलब्धि बताया जाता है, उस दौर में सबसे जोखिम और गरिमारहित काम में आम इंसानों को क्यों झोंका जाता और उन्हें उपेक्षित क्यों माना जाता है?