दिल्ली में विधायकों के वेतन में बढ़ोतरी से संबंधित विधेयक पारित होने के बाद विपक्ष को केजरीवाल सरकार पर अंगुली उठाने का एक और मौका मिल गया है। नए नियम के मुताबिक दिल्ली के विधायकों का वेतन अन्य राज्यों के विधायकों से कहीं ज्यादा होगा। यहां तक कि उन्हें प्रधानमंत्री से भी अधिक तनख्वाह मिलेगी। उनके मूल वेतन में करीब चार सौ फीसद बढ़ोतरी की गई है।

अब उन्हें दफ्तर के खर्चे और तमाम भत्ते मिला कर करीब दो लाख पैंतीस हजार रुपए हर माह मिलेंगे। इसके आसपास केवल झारखंड के विधायकों की तनख्वाह है- दो लाख दस हजार रुपए। आम आदमी पार्टी ने सादगी के संकल्प के साथ सत्ता संभाली थी। पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद अरविंद केजरीवाल ने आलीशान गाड़ी और घर लेने के बजाय सामान्य नागरिक की तरह रहने का संकल्प दोहराया था।

इसलिए स्वाभाविक ही कुछ लोगों को उनकी सरकार के इस फैसले पर हैरानी हो रही है। हालांकि जिस तरह हर साल रोजमर्रा के खर्चे बढ़ रहे हैं, उसके मद्देनजर वेतन में बढ़ोतरी को अनुचित नहीं ठहराया जा सकता, मगर वह तर्कसंगत होनी चाहिए। कोई यह भी दलील दे सकता है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद सरकारी अधिकारियों की तनख्वाहें भी अब कई राज्यों के विधायकों को मिलने वाली तनख्वाहों से अधिक हो गई हैं। इसलिए दिल्ली सरकार की बढ़ोतरी असंगत नहीं कही जा सकती। यह भी सही है कि सांसदों और विधायकों के खर्चे सामान्य सरकारी अधिकारियों के खर्चों से बिल्कुल अलग और कहीं अधिक होते हैं। उन पर केवल घरेलू जरूरतें पूरी करने का दबाव नहीं होता, अपनी राजनीतिक गतिविधियों के हिसाब से भी बहुत सारे खर्चे उठाने पड़ते हैं। पर सादगी का संकल्प दोहराने वाली सरकार से यह अपेक्षा तो रहती ही है कि वह अपने खर्चों को सीमित रखे।

सांसदों और विधायकों के वेतन में वृद्धि को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। यह भी आरोप लगता रहा है कि जनप्रतिनिधियों को अपने खर्चों पर तो महंगाई का असर दिखाई देता है, पर सामान्य नागरिकों की मुश्किलों पर उनका ध्यान नहीं जाता। इन तमाम बहसों में यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि जब सरकारी कर्मचारियों, यहां तक कि श्रमिकों के वेतन-भत्तों और मजदूरी को लेकर आयोग गठित किए जाते हैं, उनकी सिफारिशों के अनुसार ही वेतन में बढ़ोतरी की जाती है तो जनप्रतिनिधियों की वेतन-वृद्धि खुद उन्हीं की सिफारिश और मंजूरी से क्यों लागू कर दी जाती है? दिल्ली सरकार ने इस मामले में जरूर अलग रास्ता अख्तियार किया। उसने विधायकों के वेतन-भत्तों में वृद्धि के प्रस्ताव पर विचार के लिए एक समिति गठित की, फिर उसकी सिफारिशों के आधार पर विधेयक तैयार किया और उसके सदन में पारित होने के बाद ही फैसला किया। पर इतने भर से केजरीवाल सरकार पर लग रहे फिजूलखर्ची और शाहखर्ची के आरोप समाप्त नहीं हो जाते।