कश्मीर के अलगाववादी नेता मसर्रत आलम की रिहाई को लेकर हुए हंगामे के कारण भाजपा सांसत में थी। पर अब उसने राहत की सांस ली है। मुफ्ती मोहम्मद सईद की अगुआई वाली साझा सरकार ने एलान किया है कि अब किसी अलगाववादी या उग्रवादी को रिहा नहीं किया जाएगा। सईद के रुख में यह परिवर्तन दो वजहों से आया।

एक, संसद और संसद के बाहर हुई तीखी प्रतिक्रियाओं के चलते। दूसरे, गठबंधन में पैदा हुए तनाव की वजह से। दूसरी ओर, भाजपा ने भी अपना स्वर पहले से नरम कर लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि देश के साथ वे भी गुस्से में हैं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा। इन बयानों के साथ-साथ भाजपा ने आलम को फिर से गिरफ्तार करने की मांग उठाई। पर वह अब ऐसी मांग नहीं कर रही है। जम्मू-कश्मीर के गृह सचिव ने कहा है कि जन सुरक्षा कानून के तहत आलम को बंद रखने की अवधि पूरी हो गई थी, अब और हिरासत में नहीं रखा जा सकता था। इस पर भाजपा भी खामोश है, और वे विपक्षी दल भी, जो भाजपा को घेरने में कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहते थे।

दरअसल, यह पूरा विवाद भावनाओं को भुनाने का सियासी खेल अधिक नजर आता है। पीडीपी ने अपना चुनाव अभियान भाजपा के विरोध पर केंद्रित रखा था। मगर उसे भाजपा से हाथ मिलाना पड़ा। भाजपा से गठबंधन के कारण घाटी में राजनीतिक नुकसान का अनुमान कर वह यह प्रदर्शित करना चाहती है कि अपने एजेंडे से तनिक पीछे नहीं हटी है। आलम की रिहाई को वह कानूनी नुक्ते से सही ठहरा रही है।

पर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही चुनाव शांतिपूर्वक निबट जाने के लिए अलगाववादियों, यहां तक आतंकवादियों और पाकिस्तान को श्रेय देने के मुफ्ती के बयान का बचाव वह कैसे कर सकती है? इस बयान पर विवाद थमा भी नहीं था कि पीडीपी के कुछ विधायकों ने अफजल गुरु के अवशेष उसके परिवार को सौंपने की मांग उठा दी। दूसरी ओर, धारा 370 को पहले ही ठंडे बस्ते में डाल चुकी भाजपा को अपने परंपरागत जनाधार की चिंता सता रही थी, तो कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों को भाजपा को कठघरे में खड़ा करने का यह अच्छा मौका नजर आया। कौन ज्यादा ‘राष्ट्रवादी’ है, इस होड़ से आगे जाकर किसी ने जन सुरक्षा कानून के तहत बंद लोगों की हालत पर विचार करने की जरूरत नहीं समझी। पीडीपी एक चुनिंदा रिहाई का श्रेय लेने में जुट गई, तो बाकी दलों को पूरे मसले की बारीकी में जाना आवश्यक नहीं लगा।

सबसे ज्यादा जिम्मेवारी भाजपा की बनती है। पीडीपी से गठजोड़ के लिए उसने दो महीने तक कई दौर में तफसील से बात की। पीडीपी से दोस्ती पर मुहर लगाने से पहले गठबंधन का एजेंडा तय हुआ। मगर इसमें कई अहम मुद््दों पर चुप्पी साध ली गई है, तो कई मुद््दों को अस्पष्ट छोड़ दिया गया है, जिनमें राजनीतिक बंदियों या जन सुरक्षा कानून के तहत बंद लोगों का मामला भी है। पीडीपी और भाजपा का गठजोड़ विरोधाभासों का मेल है।

खुद मुफ्ती मोहम्मद सईद ने इसे दो ध्रुवों का मेल कहा है। ऐसी सूरत में गठबंधन के एजेंडे को हर कोण से साफ-साफ परिभाषित करने की और भी जरूरत थी। पर भाजपा ने इस तकाजे को पूरी तवज्जो नहीं दी। इसका खमियाजा उसे भुगतना पड़ा है, शायद आगे भी भुगतना पड़े। यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि पीडीपी का ताजा रुख टिकाऊ साबित होगा। फिर से अप्रत्याशित नौबत न आए, इसके लिए जरूरी है कि भाजपा और पीडीपी गठबंधन के एजेंडे को और स्पष्ट बनाएं।

 

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