अफगानिस्तान में शांति कायम करने के मकसद से अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता का जो दौर शुरू हुआ है, उससे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं लगाई जानी चाहिए। ऐसी शांति वातार्ओं के प्रयास पहले भी हुए हैं और इनका हश्र भी सबने देखा है। अमेरिका के साथ तालिबान की वातार्एं नाकाम ही रही और तीन साल पहले तो राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अचानक तालिबान से बात करने से मना कर दिया था। ऐसे में यह कहना कि शांति वार्ता का यह दौर बड़ी उपलब्धियों भरा होगा, दूर की कौड़ी ही होगी।
वार्ता की शुरूआत में अफगान सरकार और तालिबान के प्रतिनिधियों के अलावा अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो भी पहुंचे। हालांकि पोंपियो को खुद बहुत ज्यादा उम्मीदें नजर नहीं आ रहीं, ऐसा वे संकेत भी दे चुके हैं।
यह भी कोई छिपी बात नहीं है कि अफगान शांति का वार्ता का यह दौर अमेरिका के दवाब में हो रहा है, ठीक वैसे ही जैसे इस साल फरवरी में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हुआ था। वार्ता का यह दौर ज्यादा चुनौती भरा इसलिए भी है क्योंकि दोनों पक्षों को जटिल मुद्दों पर बात करके समाधान तक पहुंचना है। इनमें स्थायी संघर्ष विराम की शर्तें, संवैधानिक संशोधनों, सत्ता के बंटवारे, देश के नए नाम और झंडे, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार और तालिबान कैदियों की रिहाई जैसे मुद्दे शामिल हैं।
चार दशकों से संघर्षों का सामना कर रहा अफगानिस्तान आज जिस मोड़ पर खड़ा है, उसके पीछे एकमात्र बड़ा कारण दूसरे मुल्कों का दखल और संबंधित पक्षों के अपने स्वार्थ और हठधर्मिता रहे हैं। कोई भी नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता आए। यह कोई छिपी बात नहीं है कि तालिबान को पाकिस्तान का खुला समर्थन है और वह उसे सत्ता में काबिज कराने की रणनीति पर चल रहा है।
ईरान भी तालिबान को हथियार और प्रशिक्षण देता रहा है। अमेरिका भी अब किसी भी तरह से अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाने में लगा है, क्योंकि अमेरिका में दो महीने बाद राष्ट्रपति चुनाव हैं और ट्रंप पहले ही अपने देश के नागरिकों से अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की पूर्ण वापसी का वादा कर चुके हैं। इसी जल्दबाजी में इस साल फरवरी में अमेरिका ने तालिबान के साथ शांति समझौता कराया गया था। हकीकत यह है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान को अब उसके हाल पर छोड़ दिया है।
अगर तालिबान और अफगान सरकार के बीच बातचीत से शांति स्थापित होनी होती और समस्या का समाधान निकलना होता, तो कभी का निकल आता। फरवरी में हुए शांति समझौते में अमेरिका ने तालिबान को जिस तरह की शर्तों से बांधा है, तभी यह संकेत मिलने लगे थे कि यह समझौता टिक नहीं पाएगा। इस समझौते के हफ्तेभर के भीतर ही तालिबान ने हिंसा शुरू कर दी थी।
दरअसल तालिबान और अफगान सरकार के बीच लड़ाई अफगानिस्तान की सत्ता को लेकर है। हालांकि अमेरिका के दवाब में अफगान सरकार तालिबान के पांच हजार से ज्यादा लड़ाकों को छोड़ चुकी है। लेकिन तालिबान सभी की रिहाई चाहता है। अफगान सैनिकों पर आए दिन होने वाले हमले बता रहे हैं कि आने वाले वक्त में अफगान सेना की चुनौतियां बढ़ने वाली हैं।
भले अमेरिका के दबाव में अफगान सरकार तालिबान की कुछ और मांगे मान ले और थोड़े वक्त के लिए शांति वार्ता सफल होती दिखे, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि अफगानिस्तान जिस तरह के चक्रव्यूह में फंस चुका है, उससे निकलना फिलहाल संभव नहीं है। जब पोंपियो खुद यह मान रहे हैं तो संदेह और पुख्ता हो जाता है।