भारतीय जनता पार्टी इमरजेंसी को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रही है। पर यह दिलचस्प है कि अपने ही वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की इमरजेंसी की बाबत की गई टिप्पणी ने पार्टी के तमाम नेताओं को सकते में ला दिया है। आडवाणी ने इसके पहले भी आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त किए होंगे, पर यह पहला मौका है जब कांग्रेस नहीं, भाजपा परेशानी महसूस कर रही है।

गौरतलब है कि आडवाणी ने एक अंगरेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में चेताया है कि इमरजेंसी जैसे अनुभव से देश को फिर से गुजरना पड़ सकता है, क्योंकि इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता कि भविष्य में नागरिक अधिकारों कानिलंबन नहीं होगा। सब जानते हैं कि 1975 में देश में आपातकाल थोपने का फैसला तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस का था। आज कांग्रेस की हालत यह है कि उसके पास लोकसभा में मान्यता-प्राप्त विपक्षी पार्टी की शर्त पूरी करने जितने भी सदस्य नहीं हैं।

फिर, ज्यादातर राज्यों में भी वह सत्तासीन पाटी नहीं रह गई है। ऐसे में आडवाणी जैसे अनुभवी और वरिष्ठ राजनेता को भविष्य में इमरजेंसी या नागरिक अधिकारों के निलंबन का डर क्यों सता रहा है? आखिर खतरा किसकी ओर से है? इस बारे में उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया है, पर मोदी के सत्ता के केंद्र में होने के कारण शक की सूई उन्हीं की तरफ घूम गई है।

यह किसी से छिपा नहीं है कि राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का उभार आडवाणी को रास नहीं आया था। एक समय उन्होंने भाजपा के भीतर प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी की दावेदारी रोकने की कोशिश भी की थी। माना जा रहा है कि उनकी टिप्पणी का परोक्ष इशारा मोदी की तरफ है। लेकिन भाजपा के अंदरूनी मामलों से आगे जाकर देखें तो आडवाणी की बात एक कड़वी हकीकत की ओर संकेत करती नजर आएगी। इमरजेंसी कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के केंद्रीकरण, व्यक्ति-पूजा और निरंकुशता की बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी।

आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। सारे अहम फैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते; केवल प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है। यही कारण है कि भाजपा के पहले के रुख को ताक पर रख कर उलट फैसले हुए, मसलन भूमि अधिग्रहण और जीएम फसलों को लेकर। इंदिरा गांधी को भारत का पर्याय कहने वाला तब के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ का बयान चर्चित रहा है। आज मोदी को भाजपा के कई नेता जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार कहने से नहीं चूकते। मोदी जहां भी जाते हैं, लय में मोदी-मोदी का नारा लगता है, और इससे मोदी खुश ही नजर आते हैं।

पिछले एक साल में लोकतांत्रिक मर्यादा और तमाम संस्थाओं की स्वायत्तता की जमकर बेकद्री हुई है। इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी की भूमिका गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी।

आज संघ की दखलंदाजी क्या गैर-संवैधानिक नहीं है? यह सब कहने का मतलब यह नहीं कि बाकी पार्टियां दूध की धुली हैं और उनमें गैर-लोकतांत्रिक रुझान नहीं हैं। वंशवाद की बुराई से अधिकतर पार्टियां ग्रसित हैं। उनमें आंतरिक लोकतंत्र के लिए कोई जगह नहीं बची है। असहमति और शांतिपूर्ण विरोध पर दमन के उदाहरण भाजपा सरकारों के भी दिए जा सकते हैं, तो गैर-भाजपा सरकारों के भी।

लेकिन विपक्ष में बैठी कांग्रेस या क्षेत्रीय पार्टियां इस स्थिति में यानी इतनी ताकतवर नहीं हैं कि वे नागरिक अधिकारों के निलंबन का खतरा पैदा कर पाएं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि आडवाणी की टिप्पणी का मोदी-राज के तौर-तरीकों से कोई संबंध नहीं होगा। यह अलग बात है कि भाजपा अपने मार्गदर्शक की ही बात से कन्नी काट ले।

 

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