दिल्ली सरकार के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती है कि वह किस तरह मुख्य सचिव के साथ तालमेल बिठा कर काम कर पाती है। मुख्य सचिव का कार्यकाल समाप्त होने को था, तब दिल्ली सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई थी कि नए मुख्य सचिव की नियुक्ति में उसकी पसंद स्वीकार की जानी चाहिए। उसमें तर्क दिया गया था कि चूंकि नए दिल्ली सेवा अधिनियम को न्यायालय में चुनौती दी गई है, इसलिए केंद्र को इस मामले में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है।

मगर अदालत ने केंद्र को मौजूदा मुख्य सचिव का कार्यकाल छह महीने तक बढ़ाने की इजाजत दे दी थी। इस तरह दिल्ली सरकार उन्हीं मुख्य सचिव के सहयोग से काम करने को बाध्य है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह नसीहत दी है कि प्रशासनिक अधिकारियों को राजनीतिक रूप से निष्क्रिय रहना चाहिए। उनके कामकाज और व्यवहार का असर सरकार के कामों पर नहीं पड़ना चाहिए।

बेशक मुख्य सचिव की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है, मगर उसकी जवाबदेही चुनी हुई सरकार के प्रति होती है। मुख्य सचिव बहुत विश्वास का पद होता है और प्रशासन में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में काम करता है। मगर इस नसीहत पर मुख्य सचिव कितना अमल करेंगे, कहना मुश्किल है।

मुख्य सचिव और सरकार के संबंधों में पहले से तल्खी चली आ रही है। दिल्ली सरकार ने आरोप लगाया था कि एक भूमि आबंटन में मुख्य सचिव ने अपने बेटे की कंपनी को कई सौ करोड़ रुपए का लाभ पहुंचाया है। इससे संबंधित रिपोर्ट भी उसने उपराज्यपाल को सौंपी थी। हालांकि उपराज्यपाल ने उस रिपोर्ट पर किसी तरह की कार्रवाई करने से इनकार कर दिया था।

इस मामले के बाद सरकार और मुख्य सचिव के रिश्तों में और कड़वाहट भर चुकी है। हालांकि मुख्य सचिव का रुख प्राय: दिल्ली सरकार के विरुद्ध ही देखा गया है। वे अपनी जवाबदेही केंद्र सरकार और उपराज्यपाल के प्रति समझते रहे हैं। इसलिए दिल्ली सरकार चाहती थी कि उन्हें सेवा विस्तार न मिले और वह अपनी पसंद के किसी सचिव की नियुक्ति करा सके। मगर इसमें वह विफल रही।

छिपी बात नहीं है कि दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच शुरू से ही तकरार और तल्खी का वातावरण बना हुआ है। सरकार के फैसलों पर उपराज्यपाल अक्सर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। अब तो नए सेवा कानून के तहत सेवाओं से जुड़े फैसलों संबंधी ज्यादातर अधिकार उपराज्यपाल के पास चले गए हैं, इसलिए सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। तिस पर मुख्य सचिव का सहयोग भी सरकार को न मिले, तो मुश्किलें समझी जा सकती हैं।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रेखांकित की गई मुख्य सचिव की जवाबदेही लोकतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से उचित है, मगर जिस तरह का वातावरण बना हुआ है, उसमें इसका पालन कठिन ही जान पड़ता है। उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच कड़वे संबंधों पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सेवाओं से संबंधित फैसले करने का संवैधानिक अधिकार चुनी हुई सरकार के पास है और उपराज्यपाल उसकी सलाह पर काम करने को बाध्य हैं।

मगर तब केंद्र सरकार ने कानून बना कर सारे अधिकार उपराज्यपाल में केंद्रित कर दिया था। इससे भी मुख्य सचिव की निष्ठा उपराज्यपाल और केंद्र सरकार के प्रति अधिक हो गई। वे इन दोनों की मंशा के विरुद्ध जाकर कोई काम नहीं करना चाहेंगे। इस तरह दिल्ली सरकार के कामकाज में अड़चनें दूर होती नजर नहीं आ रहीं। चिंता की बात है कि ऐसी राजनीतिक तनातनी के बीच नुकसान आखिरकार आम लोगों का होगा।