पिछले कुछ समय के दौरान सार्वजनिक बसों के हादसे के कई मामले सामने आए, जिनमें आग लगने से यात्री जिंदा जल गए। ऐसी घटनाओं को हादसा मान कर ही देखा गया और सरकार ने इनकी जांच कराने और हताहतों या उनके परिजनोंं को मुआवजा देने की घोषणा करके औपचारिकता पूरी कर ली। मगर जब एक ही तरह की दुर्घटनाएं लगातार होने लगें, तो इस पर भी विचार करने की जरूरत होती है कि इनकी तह में क्या वजह छिपी हो सकती है।

अव्वल तो वाहन सुरक्षित चलाने से लेकर सामान रखने की जगह और बस के भीतर आवाजाही के रास्ते निर्बाध रखने जैसी सावधानी को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी प्रबंधन की होनी चाहिए। अगर इसमें लापरवाही बरती जाती है, तो उसकी जांच और कार्रवाई की जिम्मेदारी सरकार के संबंधित महकमे तथा अधिकारियों की है। मगर ऐसा लगता है कि हर स्तर पर घोर लापरवाही बरती जाती है और यात्रियों के जीवन की कोई परवाह नहीं की जाती। सवाल है कि ऐसी स्थिति कैसे आती है कि किसी बस में आग लग जाने पर यात्रियों को निकलने तक का मौका नहीं मिलता और वे अपनी या किसी अन्य की जान बचाने के लिए कुछ नहीं कर पाते।

मानवाधिकार आयोग ने राजमार्ग मंत्रालय को जारी किया नोटिस

इसी मसले पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, यानी एनएचआरसी की एक पीठ ने केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय को नोटिस जारी किया है तथा राज्यों के मुख्य सचिवों को सुरक्षा मानकों का उल्लंघन करने वाली बसों को हटाने का निर्देश दिया। दरअसल, यह शिकायत दर्ज कराई गई थी कि सार्वजनिक बसों के डिजाइन में गंभीर खामी यात्रियों की जान को खतरे में डाल रही है। ऐसी खबरें भी आईं कि हादसे या आग लगने के बाद बस का स्वचालित दरवाजा जाम हो गया और इसकी वजह से लोग भीतर ही फंस गए।

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इसके अलावा, बस में जरूरत से ज्यादा भार, आपातकालीन दरवाजे या खिड़कियों का नहीं होना या फिर बेकाम होना जैसी अनेक लापरवाहियां यात्रियों की मौत की वजह बनती हैं। आखिर डिजाइन में गंभीर खामी वाली बसें जोखिम भरी स्थितियों में सड़क पर निर्बाध दौड़ती हैं, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? आए दिन यात्री बसों में आग लगने और लोगों की मौत की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए इस पर विचार और ठोस कार्रवाई बेहद जरूरी है।