किसी भी अस्पताल में कोई व्यक्ति अगर इलाज या चिकित्सा सहायता के लिए पहुंचता है तो वह जीवन की उम्मीद से भरा होता है। लेकिन अस्पताल जैसी जगह में भी किसी आपात स्थिति नहीं, बल्कि महज लापरवाही और संवेदनहीनता की वजह से अगर किसी की जान चली जाए तो यह समूची व्यवस्था पर एक सवालिया निशान है।
उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के पुवायां में एक गर्भवती महिला को प्रसव के लिए एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां चिकित्सक ने पहले ही सामान्य प्रसव कराने पर महिला और नवजात की जान को खतरा बताया और आपरेशन से प्रसव कराने की बात कही। महिला के परिजनों से पैसे भी वसूल लिए गए। लेकिन प्रसव के लिए उसे सात घंटे इंतजार कराया गया। डाक्टरों और अस्पतालकर्मियों के टालमटोल और संवेदनहीनता के बीच गर्भवती महिला की हालत बिगड़ती चली गई और आखिरकार उसकी जान चली गई।
किसी दुर्घटना या फिर आपात अवस्था में मौत के दरवाजे पर पड़े मरीज को भी अगर समय पर इलाज मुहैया करा दिया जाए तो उसकी जान बच सकती है। लेकिन इस मामले में प्रसूता महिला और उसका जन्म लेने वाला शिशु सिर्फ इसलिए नहीं बच सके कि उन्हें अस्पताल में होने के बावजूद न केवल तुरंत चिकित्सा सहायता उपलब्ध नहीं कराया गया, बल्कि इतने लंबे वक्त तक अपने हाल पर छोड़ दिया गया।
देश भर में असमय ही होने वाली जच्चा-बच्चा की मौत के मामलों में क्या इस तरह की घटनाओं की भी भूमिका नहीं है? अगर किसी भी अस्पताल में ऐसी घटनाएं होती हैं तो उसकी जिम्मेदारी किस पर आएगी? मामले के तूल पकड़ने के बाद पुलिस ने शव को कब्जे में लेकर पोस्टमार्टम के लिए भेजने जैसी औपचारिक कार्रवाई की, लेकिन खबर के मुताबिक इससे ज्यादा कुछ फिलहाल नहीं हुआ, क्योंकि इस घटना के संदर्भ में कोई तहरीर नहीं आई थी।
सवाल है कि लापरवाही से हुई मौत की समूची घटना सामने और साफ होने के बावजूद जिम्मेदारी तय करने की प्रक्रिया इतनी जटिल क्यों है! उत्तर प्रदेश में हुई यह घटना इस तरह का कोई अकेला वाकया नहीं है। देश भर से ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं, जिसमें बताया जाता है कि कोई मरीज गंभीर अवस्था में अस्पताल में या डाक्टर के पास पड़ा होता है और पैसे के अभाव या फिर किसी अन्य कारण से उसके इलाज में उपेक्षा, देरी या लापरवाही की जाती है।
कई बार तो पैसे के लालच में इलाज की प्रक्रिया को जटिल बताया और बनाया जाता है और इस क्रम में बच सकने वाले किसी मरीज की भी जान चली जाती है। आमतौर पर लोग अच्छे इलाज की उम्मीद में सरकारी के बजाय निजी अस्पतालों का रुख करते हैं। लेकिन वहां अक्सर मरीजों से ज्यादा से ज्यादा पैसे वसूलने की ही कोशिश होती है।
हैरानी की बात यह है कि निजी संस्थान होने की दलील पर बेहतरीन इलाज मुहैया कराने का दावा करने वाले अस्पतालों में भी लापरवाही की वजह से होने वाली मौत की घटनाएं होती रहती हैं। ऐसे मामले भी आम हैं, जिनमें अगर किसी मरीज का इलाज सामान्य तरीके से और कम खर्च में हो सकता है तो भी उसके कम जागरूक होने का फायदा उठा कर उसके सामने जान जाने का डर पैदा किया जाता है और उससे ज्यादा पैसे वसूले जाते हैं।
जिस दौर में देश भर में स्वास्थ्य के सवाल को सबसे ज्यादा अहमियत देने की बातें कही-सुनी जा रही हैं, उसमें सिर्फ समय पर इलाज मुहैया नहीं कराने की वजह से होने वाली मौतें एक बड़ी विडंबना की ओर इशारा करती हैं।