राजनीतिक अस्थिरता से निपटने के मकसद से दलबदल कानून बनाया गया था। उसमें संशोधन भी किया गया। मगर यह कानून कारगर साबित नहीं हो पा रहा, तो इस दिशा में गंभीरता से विचार की जरूरत है। छोटे राज्यों की विधानसभाओं में, जहां दो राजनीतिक दलों में बहुमत के लिए बहुत कम सदस्यों का अंतर होता है, अक्सर विधायकों को पाला बदल कर राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा करते देखा जाता है। उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार ऐसी ही कोशिशों के चलते संकट में फंस गई है। कांग्रेस के नौ विधायक बागी हो गए और उन्होंने भाजपा के सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया। कुछ महीने पहले अरुणाचल में भी ऐसा ही हुआ और आखिरकार बागी विधायकों ने भाजपा के समर्थन से नई सरकार गठित कर ली।
झारखंड, गोवा और पूर्वोत्तर के राज्य भी इस प्रवृत्ति का सामना करते रहे हैं। हालांकि उत्तराखंड में राज्यपाल ने बागी विधायकों को नोटिस भेज कर पूछा है कि क्यों न उनकी सदस्यता समाप्त कर दी जाए। बागी विधायकों को इस महीने की छब्बीस तारीख को अपना जवाब देना है। उसके दो दिन बाद हरीश रावत सरकार को अपना बहुमत साबित करना है। दरअसल, बागी विधायकों की संख्या एक तिहाई से कम है, इसलिए उन्हें अलग राजनीतिक धड़े के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती। सत्तर सदस्यीय उत्तराखंड विधानसभा में कांग्रेस के कुल छत्तीस निर्वाचित सदस्य हैं। अगर बागी विधायकों की सदस्यता समाप्त हो जाती है तो भाजपा सरकार बनाने का दावा पेश कर सकती है, क्योंकि उसके सदस्यों की संख्या अट्ठाईस है। हालांकि उसका एक सदस्य जेल में है, इसलिए सदन में उसके मताधिकार को लेकर कानूनी जद्दोजहद करनी पड़ेगी। अब राज्यपाल के सामने स्थिति पेचीदा है।
अगर हरीश रावत सरकार गिर जाती है, तो आखिरकार इससे आम लोगों का राजनीतिक व्यवस्था पर विश्वास कमजोर होगा, जिन्होंने कांग्रेस को जनादेश दिया था। छोटी विधानसभाओं में दबाव की राजनीति करके अपना स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिशों के चलते अक्सर जनादेश का उल्लंघन होता देखा गया है। उत्तराखंड में अस्थिरता की वजहें साफ हैं। बागियों की अगुआई विजय बहुगुणा कर रहे हैं। बहुगुणा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्हें हटा कर हरीश रावत को जिम्मेदारी सौंपी गई थी। जाहिर है, वे पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के इस फैसले को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाए हैं। भाजपा के साथ मिल कर उन्हें नई सरकार गठित करना आसान लग रहा होगा। भाजपा बागियों का साथ देने को तैयार है। अरुणाचल में इसी तरह बागियों ने सरकार गठित कर ली।
दरअसल, बागी विधायकों पर दलबदल कानून असरदार ढंग से लागू न हो पाने की बड़ी वजह स्थितियों के मुताबिक विधानसभा अध्यक्षों की स्पष्ट व्याख्या न कर पाना रहा है। अरुणाचल में तो राज्यपाल की भूमिका भी संदिग्ध रही। ऐसी स्थितियों में मामला अदालत के समक्ष पहुंचता है और वहां सुनवाइयों का सिलसिला लंबा चलता रहता है। तब तक बहुत देर हो जाती है और जिस दल को जनादेश मिला होता है, वह सत्ता का अधिकार खो देता है। उत्तराखंड में ऐसा न होने पाए, ध्यान रखने की जरूरत है। राज्यपाल के हस्तक्षेप से उम्मीद बनती है कि वहां वैसा नहीं होगा, जैसा अरुणाचल में हुआ। बावजूद इसके जरूरत है ऐसे उपाय करने की, जिससे अपने स्वार्थ के लिए चुने हुए प्रतिनिधि राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति न पैदा करने पाएं। ऐसा करने वालों को कड़े दंड का भय बना रहे।