हर साल डेंगू का प्रकोप कुछ बढ़ा हुआ दर्ज होता है। फिलहाल स्थिति यह है कि अकेले दिल्ली में इसने अब तक के सारे आंकड़े ध्वस्त कर दिए हैं। सरकारी अस्पतालों में मरीजों को भरती करने की जगह नहीं है, एक बिस्तर पर कई मरीजों को लिटा कर इलाज करने की कोशिश की जा रही है। अब तक डेंगू से करीब ग्यारह लोगों की मौत हो चुकी है।

सरकार की चिंता है कि कैसे इस समस्या से पार पाया जाए। पर दूसरी तरफ निजी अस्पतालों को अपनी कमाई की फिक्र सता रही है। डेंगू से एक बच्चे की मौत ने दिल्ली के निजी अस्पतालों की निष्ठुरता उजागर कर दी है। बच्चे के परिजनों ने आरोप लगाया कि वे कई नामी और बड़े अस्पतालों में गए, पर सबने उनके बच्चे को भरती करने से मना कर दिया।

आखिरकार समय पर इलाज न मिल पाने की वजह से उसने दम तोड़ दिया। इस मौत से आहत बच्चे के माता-पिता ने भी मौत को गले लगा लिया। इस घटना से केंद्र और दिल्ली सरकार की बेचैनी बढ़ गई है। दिल्ली सरकार ने निजी अस्पतालों को सख्त चेतावनी दी है, तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने उनका कर्तव्य याद दिलाया है। पिछले कई सालों से लगातार डेंगू का खतरा बना रहता है। खासकर बरसात खत्म होने के बाद इस बीमारी को जन्म देने वाले मच्छरों की बढ़वार शुरू होती है और सर्दी आने तक बनी रहती है।

इसकी वजहें भी छिपी नहीं हैं। ये मच्छर जमा साफ पानी में पैदा होते हैं। हालांकि हर साल बरसात शुरू होते ही डेंगू के मच्छरों को पैदा होने से रोकने के उपायों को लेकर जन-जागरूकता अभियान चलाया जाता है, पर उसका कोई असर नजर नहीं आता तो इसे क्या कहा जा सकता है। इस मामले में आम लोगों की लापरवाही तो है ही, सरकार भी जैसे जन-जागरूकता अभियान संबंधी प्रचार सामग्री का प्रसारण-प्रकाशन करके अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ लेती है। साफ-सफाई के मामले में उसकी शिथिलता छिपी नहीं है।

हर साल डेंगू की रोकथाम के लिए अस्पतालों को विशेष रूप से तैयार रहने को कहा जाता है। मगर हालत यह है कि जब इसके मरीजों की तादाद बढ़नी शुरू होती है, अस्पतालों की पोल खुलने लगती है। न इसकी जांच की माकूल सुविधाएं होती हैं, न उपचार की समुचित व्यवस्था। सरकारी अस्पतालों पर वैसे भी मरीजों का बोझ अधिक होता है, इसलिए जब किसी बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है तो स्वाभाविक ही निजी अस्पतालों से अधिक संवेदनशीलता की उम्मीद की जाती है। पर जिस तरह इन अस्पतालों में ऊंची कमाई की होड़ दिखाई देने लगी है, उनमें कर्तव्यनिष्ठा को लेकर सवाल उठते रहे हैं।

बाजार दर से कम कीमत पर उन्हें जमीन उपलब्ध कराने के पीछे यही मकसद होता है कि गंभीर स्थितियों में वे स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं मुहैया कराने में मदद करेंगे। बहुत दबाव बनाने के बाद वे कुछ हद तक गरीब लोगों का मुफ्त इलाज करने को तैयार हुए। अब जिस तरह डेंगू की बीमारी से निपटने में उनकी असंवेदनशीलता उजागर हुई है, उससे उनकी जिम्मेदारियां तय करने के मामले में कुछ कठोर कदम उठाने पर एक बार फिर से विचार किए जाने की जरूरत है।

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