डॉली बंसीवार
मुंबई की ‘बेस्ट’ बसों में सफर करना कोई बच्चों का खेल नहीं है। कुछ समय पहले रोजाना की तरह सुबह बस से दफ्तर जा रही थी। भीड़ काफी थी, लेकिन प्रभा देवी बस-स्टॉप पर कुछ लोग उतरे। सभी पुरुष किसी को दुत्कारते और गरियाते हुए उतर रहे थे, मानो कोई छुआछूत की बीमारी बस में चढ़ गई हो। अगले स्टैंड पर भीड़ थोड़ी कम हुई तो मैंने देखा कि दो महिलाएं ड्राइवर के पास खड़ी थीं। उनमें से एक महिला गर्भवती थी। उसके साथ वाली सत्रह-अठारह साल की लड़की मेरे बगल में आकर बैठ गई। मुझसे उसने पूछा- ‘कहां उतरेगी दीदी।’ मैंने मुसकराते हुए कहा कि ‘दूरदर्शन उतरना है।’ यह बात पीछे बैठे एक बुजुर्ग अंकल ने सुनी और उस लड़की पर बड़ी जोर से चिल्लाए- ‘तेरे को क्या मतलब है? अपने काम से काम रख, बस चल उठ यहां से!’ लड़की चुपचाप खड़ी हो गई और अगले ही स्टैंड पर दोनों बस से उतर गर्इं। मुझे माजरा कुछ समझ नहीं आया। वे अंकल भी मेरे ही स्टैंड पर उतरे और बैग लेकर आगे बढ़ गए। मैंने भी उतर कर पीछे से उन्हें आवाज दी- ‘अंकल आपने उस लड़की को ऐसे क्यों डाटा?’ उन्होंने कहा- ‘लगता है तुम्हें समझ नहीं आया शायद। वे लोग वरली के रेड-लाइट एरिया की औरतें थीं। तुम्हें उनसे बात नहीं करनी चाहिए थी!’ मैं हैरान रह गई कि उनसे ऐसा व्यवहार सिर्फ इसलिए किया जा रहा था कि वे रेड-लाइट एरिया में रहने वाली औरतें थीं। सवाल है कि क्या यह काम उनका चुनाव और पसंद है? उनकी इस स्थिति में क्या पुरुषों का हाथ नहीं है?
वेश्यावृत्ति इस समाज में कोई नई चीज नहीं है। आजादी के बाद भी वेश्यावृत्ति की दुनिया नारकीय जीवन से कम रही है। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में लगभग पच्चीस लाख महिलाएं वेश्यावृत्ति के दलदल में फंसी हैं और प्रतिदिन लगभग दो सौ महिलाएं इसमें धकेली जाती हैं। भारत में 1956 में एक कानून इन धंधों पर रोक लगाने के लिए लाया गया था, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि कानून इस पेशे में लगी महिलाओं को यह आत्मविश्वास प्रदान करेगा कि उन्हें भी समाज में जीवन जीने का हक है। हालांकि ऐसा कुछ हो नहीं पाया। ऐसी महिलाओं का जीवन आज भी नरक है। ऐसे में मुंबई का कमाठीपुरा, दिल्ली का जीबी रोड, पुणे का बुधवार पैठ, वाराणसी की कुदालमंडी, भुवनेश्वर का मालिस, आंध्रप्रदेश का पद्देपुरम, ग्वालियर का रेशमपुरा, भागलपुर का जोगसर, गुजरात का बनासकांठा और पश्चिम बंगाल के सोनागाछी जैसे इलाके इस सभ्य और लोकतांत्रिक समाज की कौन-सी कहानी कहते हैं?
समय या स्थान के साथ-साथ इस नरक में रहने वाली औरतों की पहचान बदल जाती है। कहीं उन्हें तवायफ, कभी वेश्या, कॉल-गर्ल, सेक्स-वर्कर तो कभी ‘कम्फर्ट गर्ल’ कहा जाता है। उनके बाद उनके बच्चों को भी जिस तरह की दुनिया का सामना करना पड़ता है, उसमें मानवीयता कहीं नहीं होती। उन्हें शिक्षा तो दूर, कोई सम्मानजनक सामाजिक पहचान तक नहीं मिल पाती है। सवाल है कि अपने हालात के लिए उन बच्चों का क्या कुसूर होता है। उनकी मांएं तमाम कोशिशों और जान लगा देने के बावजूद उन्हें एक अच्छा और स्वस्थ भविष्य नहीं दे पाती हैं, क्योंकि परोक्ष रूप से उनके चारों तरफ एक नहीं दिखने वाली दीवार खड़ी कर दी जाती है। ऐसे में सरकार को सबसे पहला काम तो इन बच्चों को सम्मानजनक जीवन देना होना चाहिए। साथ ही ऐसी महिलाओं और उनके बच्चों के पुनर्वास के क्षेत्र में जरूरी कदम उठाने चाहिए।
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