अलका कौशिक

वे करीब साढ़े तीन दशक पहले सूखे और गरीबी से आजिज आकर राजस्थान के अलवर में अपने घरों को छोड़ कर अनजान मंजिल की तरफ बढ़ चले थे। उनके काफिलों में उनके समूचे परिवार के अलावा सबसे अहम उनका हुनर भी साथ था। पश्चिम से चले आ रहे उनके थके-मांदे काफिले राजधानी दिल्ली के पश्चिमी इलाकों में खाली जमीन देख कर ठिठक गए और तब से आज तक वे वहीं थमे हुए हैं। अभी कुछ महीने पहले तक ‘गूगल’ जैसे भेदिए की नजर भी उन पर नहीं पड़ी थी! अलबत्ता अब वहां भी कुम्हार कॉलोनी या ‘पॉटर्स विलेज’ से खोजने पर कई सही-गलत जानकारी सामने आती है। उनके चाक पर बने गमले, मटके, दीये और न जाने क्या-क्या सामान हम तक पहुंचते रहे हैं, लेकिन हम शहर वालों ने कभी यह जानने की कोशिश तो क्या, इस सवाल से जूझना भी नहीं चाहा कि मिट्टी की शक्लो-सूरत बदल देने वाले वे हाथ आखिर किन लोगों के हैं और वे कहां बसते हैं।

इमारतों के सिलसिले और मेट्रो के कई स्टेशनों को पार हम पश्चिमी दिल्ली के हस्तसाल गांव के नजदीक बसे इस कुम्हार ग्राम (कुम्हार कॉलोनी) की खाक छानने पहुंचे तो शुरू में कुछ निराशा हाथ लगी। सोचा था कि मटकों-सुराहियों के ‘जखीरे’ सजे होंगे, गमलों-गुल्लकों की धूम होगी और कहीं टेराकोटा के गणेश-लक्ष्मी साक्षात विराज रहे होंगे! लेकिन इसके उलट हमारे सामने पसरा था एक गांव। उस गांव की बची-खुची सड़कों की आबरू भी पिछली बारिश बहा ले गई थी और अब उन गलियों में सिर्फ छोटे-छोटे मिट्टी के टीले थे। बहती नालियां और उन लोगों का पूरा संसार जैसे घर के दालान और चारदिवारी से रिसता हुआ बाहर गलियों में बिखरा था। हर घर के बाहर कमोबेश एक-सा ही नजारा था। घर की बेटियां, बहुएं और माएं मिट्टी कूटती, छानती, गूंदती या ज्यादा से ज्यादा घर के ‘मास्टर क्राफ्ट्समैन’ की सहायक की भूमिका में थीं।

जम्हुई ने इसका कारण साफ करते हुए बताया कि औरतें चाक पर नहीं बैठ सकतीं। दरअसल, चाक मायने रोजी-रोटी कमाने का जरिया और हमारे रहते घर की औरत को कमाने की क्या जरूरत है! लेकिन यह भी सच है कि चाक के सिवाय इस पूरे कारोबार के हर पहलू से औरतें जुड़ी हैं। चाक से उतरा मिट्टी का पात्र धूप में सुखाने से लेकर उसके भट्टे से बाहर आने तक और फिर उस पर रंगों की कूचियां फिराने तक की हर कड़ी इन महिलाओं के हाथों से ही होकर गुजरती है। पहले चिकनी मिट्टी की ढुलाई जब आसपास के इलाकों से की जाती थी तो गधे इसमें एक अहम कड़ी हुआ करते थे। लेकिन अब यहां हर चाक पर चढ़ने वाली मिट्टी हरियाणा के झज्जर से ट्रैक्टरों में लद कर पहुंचती है। यानी गधा अब शायद पूरी तरह खारिज हो गया है उस गांव से! यहां का तैयार माल दिल्ली हाट जैसे फैशनपरस्त बाजारों में सजता हुआ जाने कितने ही आलीशान घरों के स्वागत कक्षों की शोभा बनता है। यहां तक कि फूलों के बड़े-बड़े गमले, सजावटी बर्तन, लड़ियों में पिरोए तोता-मैना समेत कई सजावटी सामान हैं जो पांच सितारा होटलों तक में पहुंचते हैं। जबकि घरों को नजर से बचाने के लिए लटकाए जाने वाले नजरबट्टू से लेकर दिवाली के दीये, व्रत-उपवास के अवसरों पर काम आने वाला करवा, मटकी या सकोरे, कुल्हड़ और अन्य मिट्टी के बर्तन आज भी शहरी-ग्रामीण जिंदगी में शामिल हैं।

शहरों के शहर दिल्ली में ऐसे भरे-पूरे गांव आज भी आबाद हैं, इस पर एकबारगी यकीन नहीं होता। लेकिन सिर्फ गांव ही क्यों, एक पूरी परंपरा को जिंदा रखा है इस बस्ती ने! मशीनों की दौड़ के बावजूद मिट्टी की पूरी ठसक इस गांव में दिखती है। लेकिन जिंदगी भी बस मिट्टी-मिट्टी हुई जाती है यहां! माटी की इस दुनिया ने एशिया के सबसे बड़े कुम्हारों के अड्डे के रूप में अपनी पहचान बनाई है। राजस्थान के साथ उनका पुराना रिश्ता आज भी कायम है। शादी-ब्याह के लिए अपने पुश्तैनी इलाकों से वे नाता जोड़ते आए हैं और कहते हैं कि इस गांव में हर कोई आपस में नाते-रिश्तेदार है, भले ही दूर का सही। मिट्टी की सोंधी गंध वहां चारों तरफ बिखरी है और हर घर की मुंडेर पर धूप लूटते माटी के बर्तन हर राहगुजर से जैसे थोड़ा रुक कर बतियाने का आग्रह करते हैं। जेठ की दुपहरी में जब प्यास हर शय पर हावी हो जाती है तो कुम्हार ग्राम में जैसे मटकों और सुराहियों की बारात निकलती है। वहीं दिवाली के आसपास दीयों से जमीन पटी रहती है। कौन कहता है कि वक्त को थमने की फुर्सत नहीं! कुम्हारों की इस बस्ती में तो वक्त नहीं, एक पूरा युग जैसे ठिठका खड़ा है!

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