एनके सिंह

अगर भारत में काले धन पर अंकुश पिछले पैंतालीस वर्षों से लगाया गया होता तो यहां रहने वाला हर व्यक्ति सात गुना अमीर होता, यानी भारत दुनिया के मध्य आय समूह के देशों में होता, उसकी प्रतिव्यक्तिआय पंद्रह सौ डॉलर से बढ़ कर साढ़े दस हजार डॉलर या लगभग अस्सी हजार रुपए से बढ़ कर सवा पांच लाख रुपए सालाना होती। कहना न होगा कि गरीबी का यह विद्रूप चेहरा न दिखाई देता। आज स्थिति यह है कि हर रोज जब एक गरीब रात में सोने जाता है तो कोई पंद्रह रुपया जो उसके विकास में खर्च किया जा सकता था, काले धन के रूप में विदेशी बैंकों में गुप्त रूप से जा चुका होता है। एक अनुमान के अनुसार, अगर काले धन पर अंकुश लगा होता तो देश की सकल घरेलू उत्पाद विकास दर हर साल पांच प्रतिशत ज्यादा होती।

स्थिति की भयावहता इस बात से जानी जा सकती है कि 1955-56 में, अर्थशास्त्री कारीडोर के अनुसार देश में काला धन मात्र चार से पांच प्रतिशत था जो 1970 में वांगचू समिति के आकलन के अनुसार सात प्रतिशत हो गया। बात यहीं नहीं रुकी और 1980-81 में नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ पब्लिक फाइनेंस के अनुसार यह प्रतिशत अठारह से बीस हो गया। जाने-माने अर्थशास्त्री और काले धन पर विशेष अध्ययन करने वाले प्रोफेसर अरुण कुमार के अनुसार, 1995-96 के आते-आते देश की जीडीपी का पचास प्रतिशत काले धन के रूप में परिवर्तित होने लगा जो आज लगभग साठ प्रतिशत का आंकड़ा छूने लगा है।

विदेशी बैंकों में इस काले धन का दस प्रतिशत जमा किया जाता है। एक आकलन के अनुसार अब तक लगभग दो खरब डॉलर (सवा करोड़ करोड़ रुपए) देश का काला धन विदेशी बैंकों में जमा हो चुका है।

विदेशों में छिपाया काला धन लाने के मुद्दे पर पहली बार केंद्र सरकार की मंशा पर अंगुली उठने लगी है। और इसकी आंच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक पहुंच सकती है। वित्तमंत्री अरुण जेटली का तर्क लोगों को रास नहीं आ रहा है। उदाहरण के लिए , स्विट्जरलैंड के साथ जिस डीटीएए (दोहरे कराधान से बचाव का करार-दो) के अनुच्छेद चौबीस की बात कह कर वित्तमंत्री मोदी सरकार को भी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के समकक्ष खड़ा कर रहे हैं वह एक गलत तर्क है। बहत्तर लोगों में से सत्रह ऐसे हैं जिन पर पहले से ही मुकदमे की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और उनके नाम उजागर करने में कोई अड़चन नहीं है। साथ ही बाकी के पचपन लोगों पर तत्काल मुकदमे की प्रक्रिया शुरू करके इस अनुच्छेद के प्रावधानों को निरस्त किया जा सकता है। क्योंकि इसी अनुच्छेद के पैरा-दो में जन-नीति के तहत अगर किसी व्यक्ति पर मुकदमे की प्रक्रिया शुरू हो गई है तो उसका नाम उजागर किया जा सकता है।

क्या हुआ सौ दिन में काले धन को विदेश से वापस लाने के नरेंद्र मोदी के वादे का? क्या यह दोहरे कराधान से बचाव का करार उस समय नहीं था जब यह वादा किया गया था? क्या जब भाजपा यूपीए सरकार को कोस रही थी तो वह इस करार से अनजान थी? जनता ने वोट मोदी को दिया है, लिहाजा आज सवाल भी उन्हीं से पूछे जाएंगे। आज मुद््दा सिर्फ यह नहीं है कि काला धन वापस कैसे हो। कैसे इसे सफेद करके उत्पादन में लगाया जाए ताकि देश में अंतर-संरचनात्मक विकास हो, रोजगार बढ़े। असली मुद््दा यह है कि आज से इसको रोका कैसे जाए और इसके लिए क्या-क्या कदम उठाए जाएं। जब सरकार पुराना काला धन वापस लाने में ही अपेक्षित दिलचस्पी नहीं ले रही है तो वर्तमान कर-ढांचे को सख्त बनाने में कितना सक्रिय होगी यह देखना अभी बाकी है।

सर्वोच्च न्यायालय में जिस बेचारगी के भाव से सरकार ने हलफनामा दायर करते हुए कहा कि दोहरे कर टालने संबंधी समझौते के तहत उसके हाथ बंधे हुए हैं, उसने शायद इस अभियान को (अगर यह अभियान का स्वरूप लेता है) एक बड़ी क्षति पहुंचाई है। इस हलफनामे के बाद जब कभी भारत की सरकार विदेशी बैंकों से नाम या जमा धनराशि के आंकड़े मांगेगी तो उसका जवाब एक ही होगा ‘आपने स्वयं ही अपने सर्वोच्च न्यायालय में इस अनुबंध के प्रावधान को उद्धृत करते हुए कहा है कि नाम उजागर नहीं किए जा सकते, फिर यह क्यों मांग रहे हैं?’

यह बात सही है कि आज देश के अधिकतर बुद्धिजीवियों से लेकर सड़क पर खोमचा लगाने वाले तक को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में एक ऐसा नेता दिखाई दे रहा है जो देश का भविष्य बदल देगा। दशकों बाद किसी नेता के लिए यह भाव आया है, अन्यथा देश ‘कोऊ नृप होय हमें का हानी’ के मोड में चला गया था।

इतिहास गवाह है एक नेता, उसके द्वारा विकसित सिस्टम या उसकी नीतियों ने पूरे समाज को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है। सम्राट अशोक, अकबर, माओ, लेनिन, चे गेवारा, लुला उनमें से कुछ हैं। गांधी भी अगर कुछ दिन और रहते तो भारत के विकास का मार्ग बदलना नेहरूकी मजबूरी हो गई होती। लिहाजा, मोदी का पूरे उत्साह से अनुसरण करना देश की जनता के लिए एकमात्र विकल्प होगा। नेतृत्व को समुचित समय देना भी नेता की पूर्ण उपादेयता के लिए उतना ही जरूरी है।

लेकिन विश्वास और अंध-विश्वास में अंतर होता है। जहां तर्क की सीमाएं खत्म होती हैं वहीं से अंध-विश्वास की सीमा शुरू होती है। ईश्वर तर्कातीत है, लिहाजा भक्ति में अंध-विश्वास लाजिमी है। ‘माम् ही पार्थ व्यपाश्रित्य’ या ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ कह कर कृष्ण भगवान ने अंध-विश्वास पर अपनी वैधता की मोहर गीता में लगा दी है। लेकिन मनुष्य पूर्ण नहीं है लिहाजा, हम उसमें मात्र विश्वास करते हैं जो दिक-काल सापेक्ष होता है। मोदी में हमें भरोसा तो है पर यह भरोसा हर क्षण तर्क की कसौटी पर कसा जाना जरूरी है। इसके दो फायदे हैं। एक तो हमें यह समझने का मौका मिलता है कि हमारा अपने नेता का अनुसरण करना कितना ठीक है और कब तक ठीक है। दूसरे, यह नेता को भी अधिनायकवादी होने से बचाता है और उसे सत्ता के जाल में फंसने नहीं देता।

राजनीति-शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार अशिक्षित या अर्ध-शिक्षित समाज (या यों कहें कि वैज्ञानिक-तार्किक सोच की कमी वाले समाज) में प्रजातंत्र की एक अलग नियति होती है। मुद््दे संविधानानुरूप, बुद्धि-सम्मत और तर्क की कसौटी पर कसे नहीं होते बल्कि इस प्रक्रिया को छोड़ जनता भावातिरेक में फैसले लेती है। लेकिन जैसे-जैसे समाज में शिक्षा बढ़ती है, प्रतिव्यक्ति आय बेहतर होती है, जन-संवाद के धरातल पर बेहतर मीडिया या अन्य विश्वसनीय स्रोतों द्वारा दी गई जानकारी के कारण तर्क-शक्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे भावना पर आधारित जनमत कम होने लगता है।
मोदी से अपेक्षाएं क्या हैं? जनता को मोदी में बेहतर विकासकर्ता, कुशल प्रशासक, भ्रष्टाचार को सहन न करने वाला और आतंकवाद का विनाशकर्ता दिखा। पहली दो विशेषताओं से यह भी माना गया कि महंगाई पर अंकुश लगेगा। जन-अपेक्षाएं इतनी बढ़ गई हैं कि दिल्ली में आॅटो ड्राइवर कहता है कि ‘चिंता न करें, अब मोदीजी आ गए हैं यह ट्रैफिक जाम की समस्या जल्द ही खत्म हो जाएगी।’

लेकिन इस तरह की अपेक्षाएं पारे की मानिंद नीचे भी गिरती हैं। लिहाजा प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के लिए जरूरी है कि महसूस किए जा सकने वाले परिवर्तन पर अपना ध्यान केंद्रित करें। अमेरिका के मेडिसन स्क्वायर की सफलता संदेश तो देती है लेकिन यह परिणाम नहीं है।
जनता में सफाई से उद्वेलन तो होता है पर जब रेलवे टिकट के आरक्षण में दलालों का बोलबाला दिखता है तो हल्की-सी मायूसी उस ‘अंध-विश्वास’ को ठेस पहुंचाती है। सब्जी की दुकान में भी जब गृहणी को मायूसी मिलती है तो वह पूछती है कि थोकबाजार का सूचकांक क्या होता है जहां पांच वर्षों में दाम सबसे कम हैं।

काला धन बाहर लाने की बहुत उम्मीद बंधी है। लेकिन जब मोदी सरकार में भी वही जवाब मिलता है- कुछ कानूनी पेचीदगी की वजह से नाम बताना मुश्किल है- तो फिर अपेक्षाओं को पालती जनता को हल्का-सा झटका लगता है। यही झटका तब भी लगता है जब भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीतने के लिए दल बदल कर आए भ्रष्ट या अपराधी किस्म के लोगों को टिकट देती है या डीपी यादव हरियाणा चुनाव में नितिन गडकरी के बगल में मंच पर दिखाई देते हैं। और इन प्रयासों को करने के लिए कोई बड़ी योजना नहीं बनानी पड़ती, लिहाजा इसके लिए समय की जरूरत नहीं होती। यह तो पहले दिन से ही शुरू हो जानी चाहिए थी।

अगर मोदी गंगा सफाई के लिए इतना जबर्दस्त अभियान कर सकते हैं, सफाई जैसे सामाजिक अचेतनता को दूर करने के लिए ‘मन की बात’ आकाशवाणी से देश भर को बता सकते हैं तो देश के प्रधानमंत्री के रूप में काले धन के खिलाफ वैसा ही अभियान क्यों नहीं? क्या काले धन के खिलाफ प्रभावी अभियान देश को खुशहाली के मार्ग पर तत्काल नहीं ले जाएगा?

शायद प्रधानमंत्री को अपनी प्राथमिकताएं बदलनी होंगी। प्रतीकात्मकता से हट कर उन तात्कालिक मुद््दों पर अभियानी भाव से कार्य करना होगा जो राज्य और उसके अभिकरणों से ही होना है। रेलवे आरक्षण में व्याप्त भ्रष्टाचार उस आम आदमी को सालता है। प्याज और आलू के दाम भी। बैंक में खाता तो खुला, पर आगे क्या? देश के वैज्ञानिक पहली बार में ही मंगलग्रह पर यान पहुंचाते हैं, पर यह दस साल की कोशिश का नतीजा है। और हकीकत यह है कि वह कोई बड़ी सफलता नहीं है क्योंकि मात्र चौदह किलो वजन के उपकरणों से हम अमेरिका के मुकाबले दूर-दूर तक कोई ‘डाटा’ नहीं हासिल कर पाएंगे। दरअसल, अंतरिक्ष वैज्ञानिक माधवन का कहना है कि इस अभियान का कोई सार्थक मतलब नहीं है। पीएसएलवी की जगह परित्यक्त जीएसएलवी पर वापस आना होगा।

बहरहाल, अब भी जनता को मोदी में भारत परिवर्तन के सारे अरमान पूरे होने की आशा दिखाई दे रही है। पर इसे शाश्वत भाव मान लेना शायद बड़ी गलती होगी। इस नए नेता में कोई दोष अभी देखना गलत होगा, पर अब परिवर्तन परिलक्षित होने लगना चाहिए, कम से कम उन क्षेत्रों में जो राज्य और उसके अभिकरणों से किया जाना है। ‘मन की बात’ लोग बड़े चाव से सुन रहे हैं और खोज रहे हैं कि हमने जो सिग्नल भेजा था वही अपने नेता के मन से भी प्रतिबिंबित होता है या नहीं।

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