योगेंद्र माथुर
आसपास कहीं से एक मधुर फिल्मी गीत ने कानों पर दस्तक दी। एकाग्रता के साथ उस तरफ ध्यान लगा कर सुना तो सुनाई दिया, ‘एक बटा दो, दो बटे चार, छोटी-छोटी बातों में बंट गया संसार…।’ सन 1976 में प्रदर्शित फिल्म ‘कालीचरण’ का यह गीत एक तरह से परिवार के सभी सदस्यों के परस्पर स्रेह और उन्हें समान रूप से मिलने वाले माता-पिता के स्रेह प्यार को समर्पित था।
हालांकि गीत तो कुछ ही देर में समाप्त हो गया, लेकिन मनोमस्तिष्क में विचारों को एक शृंखला छोड़ गया। करीब पांच दशक पहले लिखे गए इस गीत की ये शुरुआती पंक्तियां वर्तमान वैश्विक हालात पर कितनी सही व सटीक बैठ रही हैं। अगर वक्त बदलता है और उसके साथ-साथ जग और हालात भी बदलते हैं तो उस गीत की पंक्तियां आज पचास साल बाद भी कई बार वहीं ठहरी क्यों लगती हैं? क्या केवल तकनीकी की दुनिया के विकास और बदलाव ही बदलते जमाने के प्रतीक हो सकते हैं? या फिर किसी समग्र बदलाव के बीच समाज और उसके सोचने-समझने के तौर-तरीके में होने वाले बदलाव को किसी बदलाव का असली चेहरा माना जाना चाहिए?
बहरहाल, वर्तमान समूचे वैश्विक परिदृश्य पर अगर हम एक नजर डालें और थोड़ा सोचें तो दिखाई देता है कि वास्तव में यह दुनिया छोटी-छोटी बातों में ही बंटी हुई है। बल्कि इस बंटवारे के नए स्तर पैदा हो रहे हैं। रंगभेद, नस्लभेद, आर्थिक-सामाजिक ऊंच-नीच व अच्छे-बुरे के भेद में समूची दुनिया अशांत बनी हुई है। दुनिया का ‘चौधरी’ बनने या दिखाने की होड़ में या फिर देश की सीमा रेखाओं के विवाद में लगभग सभी देश गुत्थम-गुत्था हो रहे हैं। क्षेत्रीय एकाधिकार और अपने देश की सीमा रेखाओं के विस्तार की साम्राज्यवादी सोच कई देशों के बीच परस्पर युद्ध की परिस्थितियां निर्मित कर रही हैं और दुनिया पल-प्रतिपल विश्वयुद्ध और परमाणु खतरे से आशंकित होकर भय या असुरक्षा के दमघोंटू वातावरण में सांस लेने पर मजबूर है।
अपने-अपने मत या धर्म के प्रचार-प्रसार का मुद्दा विभिन्न धर्मावलंबियों और मतावलंबियों के बीच परस्पर विद्वेष और वैमनस्य पैदा कर दुनिया में अशांति बढ़ाने का कारण बन रहा है। धर्म की सांगोपांग अवधारणा या मर्म जाने-समझे बगैर कथित या फिर छद्म धर्म के ऊंच-नीच का विचार दुनिया को हिंसा की ओर अग्रसर कर रहा है। ‘परहित सरस धर्म नहीं भाई…’ जैसे मूल धार्मिक संदेश दूर कहीं कोने में सिसकियां लेते दिखाई दे रहे हैं और कथित छद्म धर्मो या संप्रदाय के प्रचार-प्रसार की प्रक्रिया हिंसात्मक गतिविधियों में तब्दील हो गई है।
हम केवल अपने देश पर ही दृष्टि डालें तो कई ऐसी विसंगतियां पाएंगे जो देशवासियों के बीच परस्पर मतभेद के साथ मनभेद बढ़ने का कारण भी बन रही हैं और हम एक साथ कई खानों में विभाजित नजर आ रहे हैं। भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्त हुए पचहत्तर साल पूरे हो गए और हम आजादी का उत्सर अलग-अलग स्वरूप में अलग-अलग नारों के साथ बड़े गर्व के साथ मना रहे हैं, लेकिन विडंबना यह है कि हम इस देश को एक ‘राष्ट्र’ की पहचान अब तक नहीं दे पाए हैं। किसी भी देश को एक राष्ट्र के रूप में पहचान पाने के लिए जिन महत्त्वपूर्ण कारकों की आवश्यकता होती है, उनमें से एक प्रमुख कारक एकता का भाव हमारे बीच अब तक पनप नहीं पाया है और हम छोटी-छोटी बातों को लेकर विखंडित हो रहे हैं, बिखर रहे हैं।
देश में सांप्रदायिक कट्टरता अपने चरम को छूती दिख रही है और हिंसा अपने पैर पसारता जा रहा है। हम जातियों के ऊंच-नीच या पिछड़ेपन के फेर में तो उलझे ही हैं, इसे लेकर कोई आरक्षण के खिलाफ दलीलें पेश कर रहा तो कोई आरक्षण के पक्ष में। लेकिन सभी इस आरक्षण के दायरे में आना चाहते हैं और अलग-अलग स्वरूप में सरकार की ओर से लाई गई आरक्षण की व्यवस्था में शामिल भी किए गए हैं। यहां तक कि जो वर्ग आरक्षण का विरोध करते हैं, उनके लिए भी अब आरक्षण लागू है। वास्तव में हाशिये पर पड़े वंचितों या वास्तविक जरूरतमंदों को उनका हक नहीं मिल पाता।
इसके बावजूद सक्षम तबके वंचित तबकों के प्रति सद्भाव नहीं रखते। ऐसे में एकता, संगठन व विकास की बात करना ही बेमानी नजर आता है।स्वाधीनता के पहले से हिंदी समूचे देश की परस्पर संवाद और संपर्क की सबसे बड़ी भाषा रही है, इसके बावजूद विडंबना यह है कि देश का एक बड़ा भूभाग भी हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने और संवैधानिक मान्यता देने के मामले में अपनी संकुचित या संकीर्ण मानसिकता और हठधर्मिता का परिचय दे रहा है। सच यह है कि छोटी-छोटी बातों में बंट कर हम अपना सुख, चैन व शांति सब कुछ खो चुके हैं। इस धरती की बात तो एक तरफ, अंतरिक्ष में भी हमारी कारगुजारी अब विस्तार लेती दिखने लगी है और हम जमीन से आसमान तक बंटने की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं।
