धर्म और आस्था प्रधान देश भारत में स्त्री के व्यक्तित्व की परिभाषा आज भी सटीक नहीं बताई जाती। धर्म में देवीस्वरूपा है वह। आस्था है कि वह शक्ति का अक्षय स्रोत है। पुरुष प्रधान समाज ने ही यह संज्ञा दी है। लेकिन मनुष्य रूप में वह क्या है- इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं। हर उत्तर किसी जालीनुमा कवच की तरह लगता है, जिसकी फांकों से पुरुषवादी षड्यंत्र की झलक गाहे-बगाहे मिलती रहती है। मंदिर में महिलाओं के प्रवेश विवाद से ऐसा लगता है कि स्त्री कोई हास-परिहास की वस्तु है। कितना अजीब है कि एक ओर वह दुर्गा, काली, सरस्वती है तो दूसरी तरफ शनि या हनुमान मंदिर में वह ‘अछूत’ है। मूर्ति को छूने या मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश के लिए उसे शर्तों पर आधारित आज्ञा-पत्र पाना होगा।
केरल के सबरीमाला मंदिर में मासिक धर्म के आयुवर्ग की महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। यह कितना हास्यास्पद है, खासकर उस देश के लिए, जो सारे विश्व को ज्ञान का दान करने का दावा करता रहा हो। आज हम कितने दोहरे आचरण के साथ जी रहे हैं, हमारी सोच कितनी वैज्ञानिक है, यह भी जगजाहिर कर रहे हैं। मासिक धर्म एक स्त्री को जननी बनाता है। उसकी कोख से जन्म लेने वाला पुरुष समाज में ग्राह्य है, लेकिन वह कोख अग्राह्य! अगर स्त्री के जीवन से वह कोख अलग होती तो क्या स्त्री को अग्राह्य बताने वाले तथाकथित बौद्धिक जन्म ले पाते? मासिक धर्म स्त्री की जैविक संरचना का अभिन्न अंग है और इसके बिना इस विश्व की कल्पना करना असंभव है।
आश्चर्य होता है समाज के उस सत्ताधारी तबके पर, जो धर्म की समझ रखने का दंभ भरता है। आखिर वह कैसी शिक्षा समाज को दे रहा है? स्त्री को अछूत की श्रेणी में लाकर वह कौन-से धर्म को आगे बढ़ाना चाहता है, यह सोचने का विषय है। इसमें तर्क की गुंजाइश नहीं। महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश को लेकर डर दिखाया गया कि संबंधित क्षेत्र में बलात्कार की घटनाएं होंगी। इतना घृणास्पद ‘तर्क’ देने वाले पुजारियों के लिए तब तर्क कोई बड़ी बात नहीं है। स्त्री के प्रति यह दोयम रुख सिर्फ हिंदू धर्म में नहीं, अन्य धर्मों में भी है। सिर्फ एक बात काफी है यह स्पष्ट करने के लिए कि आज तक कोई भी स्त्री किसी भी धर्म का सर्वेसर्वा नहीं बन पाई।
आज इक्कीसवीं सदीं के नारा-बहुल समय में ये नारे बदलाव का बिगुल बजाते जान पड़ते हैं। तो जरा उस नारे की बात की जाए, जो मंदिर प्रवेश बहिष्कार के एकदम उलट है, यानी महिला सशक्तीकरण। कहा जाता है कि देश, समाज, विश्व को आगे बढ़ाना है तो महिला को सशक्त बनाओ। लेकिन कैसा सशक्तीकरण? एक तरफ स्वेतलाना एलेक्सवीच को 2015 का नोबेल पुरस्कार मिलता है, तो दूसरी तरफ भूमाता ब्रिगेड की महिलाएं मंदिर प्रवेश की लड़ाई लड़ रही हैं। स्वेतलाना ने अपने नोबेल वक्तव्य में ऐसे गांव की तस्वीर साझा की, जहां सिर्फ स्त्रियां हैं जो युद्ध में गए अपने पति के इंतजार में वक्त गुजार रही हैं। उन्हें पता है कि युद्ध से उनके पति शायद ही सही सलामत लौटें, लेकिन वे अपने पति का भार उठाने को तैयार हैं, क्योंकि वे उनसे प्रेम करती हैं।
मगर मौजूदा समय में बौद्धिकता और व्यावहारिकता के बीच गहराती खाई देख कर ताज्जुब होता है कि हम विकास-पथ पर अग्रसर हैं। विकास के ‘वेब’ में एक साथ ‘वायरस’ और ‘एंटी वायरस’ के सॉफ्टवेयर चल रहे हैं। ‘वायरस’ को ‘एंटी वायरस’ नष्ट करने में जुटता है कि एक नया ‘वायरस’ आना शुरू हो जाता है, जो पहले वाले से ज्यादा खतरनाक होता है। महिला सशक्तीकरण रूपी ‘एंटी वायरस’ का संघर्ष धर्म-आस्था के नाम पर महिलाओं के सम्मान के साथ हो रहे खिलवाड़ रूपी ‘वायरस’ से चल रहा है।
एक तरफ आंबेडकर जयंती मनाएंगे तो दूसरी तरफ स्त्री के अधिकार, उसकी समानता और आजादी सुनिश्चित करने वाले संविधान के अनुच्छेदों की हर चुनौती को नस्तनाबूद करने में जी-जान से जुट जाएंगे। दरअसल, मनुस्मृति की मानसिकता और मौलिक अधिकार आमने-सामने हैं। हम मौलिक अधिकारों को मजबूत करने की वकालत करते हैं, लेकिन मनुस्मृति की मानसिकता से अपना पिंड छुड़ाना नहीं चाहते। स्त्री को सारे अधिकार मिलें, इसकी लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं एक बेटी को पिता का कहना मानना ही होगा, पत्नी को पति के कहे अनुसार चलना ही होगा- ऐसी तमाम बातें शाश्वत सत्य बन चुकी हैं। बाकी सारे सत्य दोयम दर्जे के हैं, जिन्हें न मानने के लिए बीसियों बहाने हैं और आखिर में यह दलील कि ‘वह तो परंपरा है, जो सदियों से चली आ रही है। इसे भला कैसे बदलें!’