पूनम पांडे

एक घर का गृहप्रवेश हो रहा था। मेजबान परिवार मेहमानों को एक-एक कोना दिखा कर खुशी से फूला नहीं समा रहा था। विदेशी टाइलें, विदेशी बल्ब, बाथरूम में विदेशी फुहारे और बेहद चकाचौंध, सुसज्जित कक्ष, पर कहीं पर भी वह परिवेश नहीं था, जो पंचतत्व से रचित आदमी होने की गवाही देता हो। न गमले, न पौधे, न गौरैया के लिए परिडे, न खुली-खुली खिड़की, न मटकी, न ही कोई ऐसा तरीका, जो रसोई में इस्तेमाल हो रहे पानी को उपयोग में ला सके। बहुत सारी खाली जगहों को महंगी टाइलों से पाट दिया गया था।

मेजबान परिवार की दलील थी कि मिट्टी, गमले आदि से धूल-धक्कड़, कीचड़ की बेकार की मुसीबत होती है। पत्ते-वत्ते के कचरे की समस्या कौन मोल ले। बहुत अजीब लगा कि जीवन जीने की आधुनिक शैली और दिखावे की अंधी दौड़ में हम बहुत कुछ खोते जा रहे हैं। अति आधुनिक दिखने की इच्छा ने चरम आडंबर और नकलीपन को चरम पर पहुंचा दिया है। आज का मध्यवर्ग अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा केवल बाहरी चमक-दमक पर खर्च करता है, बल्कि उस पर बार-बार बात भी करता है। परिचितों से बात कीजिए, तो पता चलेगा कि उनके कुल खर्चे का कम से कम चालीस प्रतिशत केवल बाहरी साज-सज्जा पर खर्च होने लगा है।

महंगे शापिंग माल और बड़ी दुकानों की चकाचौंध और कंपनियों की रियायत के खेल में हमें पता ही नहीं चलता कि हम कब अपनी जेब हल्की कर बैठते हैं और खुद भी आचरण से हल्के हो जाते हैं। कोरे भ्रम फैला कर बाजार बहुत कुछ खुलेआम बेच रहा है और हमारी युवा पीढ़ी खुशी-खुशी ठगी जा रही है। ऐसे में हमारे बड़ों की आशीष देते समय या मिलते-जुलते समय कही गई जरूरी बातें, कहावतें और किस्से खूब याद आते हैं। किसी भी सामाजिक उत्सव या किसी आयोजन में ऐसी अच्छी और अनुभव से भरी बातें कही-सुनी जाती थीं, जो बड़ी अनमोल होती थीं। वे सीखें हमें आज भी राह दिखाती हैं।

मगर, आज हाल यह है कि हर अक्ल की बात सीखने के लिए गूगल के पास जाओ और उसी पर निर्भर रहो। नई पीढ़ी में ज्यादातर के लिए तो किसी सरल और ग्रामीण से सुने एक का विचार मूल्य मात्र विचार या बस एक बात से अधिक कुछ भी नहीं रहता। नई पीढ़ी को यह समझना चाहिए कि शरीर की बाहरी सजावट, नए-नए कपड़े पहनना, बातचीत में दो-तीन शब्द अंग्रेजी के बोलना, इनसे व्यक्तित्व उत्तम नहीं बन सकता।

नैतिक मूल्यों के अनुकरण से ही उत्तम व्यक्तित्व का स्वामी बना जा सकता है। वास्तव में व्यक्तित्व निर्माण मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इंसान कितना भी सफल और समृद्ध बने। कुछ भी बनने से पहले अनिवार्य है व्यक्तित्ववान बनना। व्यक्तित्व महान बन गया तो एक किसान और मजदूर के रूप में भी अपने समाज में चारों ओर सुगंध ही बिखेरेगा। लोग उसके आकर्षक व्यक्तित्व का अनुसरण करेंगे। सतहीपन, ओछापन, हल्कापन उनमें कदापि नहीं होता, जिनमें अपने अग्रजों के संस्कार समाहित रहते हैं।

यों, लोग आज भी अपने प्रयास तो कर ही रहे हैं। पुराने लोगों से मिल कर उनके विचार किसी न किसी रूप में नई पीढ़ी को किसी बहाने से उपहार स्वरूप दे रहे हैं और उनके लिए शुभकामनाएं भेज रहे हैं कि वह अपने पूरे सप्ताह में कम से कम एक दिन तो किसी अनुकरणीय हस्ती की तरह गुजारे। अपने देश में सामाजिक मेल-मिलाप के समय अपने से छोटी उम्र वालों को मशविरा देना एक सामान्य चलन है। मगर जैसे-जैसे काल बदलता है, घटनाएं घटती हैं, थोप कर जबर्दस्ती समझा दी गई बातों से उदासी भी हो जाती है। उनकी महत्ता और मूल्य में परिवर्तन आता है। हालांकि अगर कभी कुछ बेहतरीन बातों को संरक्षित किया गया हो, तो अक्सर वे गौरवमयी संस्कृति का प्रतीक बन जाती हैं।

अच्छा आचार-विचार अच्छे माहौल की तरफ ले जाता है। मगर अफसोस कि आजकल तो माडर्न सोच के नाम पर पूरी पीढ़ी कमजोर ही साबित हो रही है। एक अच्छी दिनचर्या और सदविचार सिर्फ हमारे घर-परिवार के रिश्ते नहीं संजोता, बल्कि आस-पड़ोस, दूध वाले, सब्जी वाले, रोजाना मिलने वालों आदि से भी हमारे रिश्ते प्रगाढ़ बनाता है। आज मुहल्ले, नुक्कड़, चौराहे, चबूतरे आदि की परिकल्पना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। लोग अपने फैशन के चक्कर में अपने तक सिमट रहे हैं और फिर अवसाद से भर रहे हैं।

बाजार ने देखते ही देखते परिदृश्य बदल दिया है और बदल रहा है। ऐसे में आइए, बाजार के मकड़जाल से बाहर निकल कर किसी राय या सलाह मांगने और देने के बहाने सही, अपने आसपास के संबंधों की महक बनाए रखें। जीवन में जीवन तो बना कर रखें।