सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
एक बार मित्रों से बातचीत के क्रम में हिंदी अक्षरों की बात शुरू हो गई। कुछ मित्रों ने कहा कि हिंदी अक्षरों की संख्या को लेकर वे हमेशा दुविधा में रहते हैं। कोई कुछ कहता है, तो कोई कुछ। इस मामले में अंग्रेजी बहुत बेहतर है। किसी को भी पूछ लें कि अंग्रेजी में कितने अक्षर होते हैं तो वे तुरंत बता देते हैं- छब्बीस। हिंदी में ऐसा नहीं है। कोई कहता है यह अक्षर संयुक्ताक्षर है, इसे वर्णमाला में नहीं गिनना चाहिए। कोई कहता है अं, अ: अयोगवाह है, इसलिए इन्हें स्वर के रूप में स्थान नहीं देना चाहिए। बारहखड़ी लिखते समय ऋ की मात्रा का उपयोग करते हैं। ऋ की मात्रा का उपयोग करने से वह तेरहखड़ी हो जाती है। फिर भी कहने को बारहखड़ी ही कहते हैं। हो सकता है कि इसके पीछे भाषाई कारण हो, फिर भी सामान्य लोगों के पल्ले यह बात कैसे पड़ेगी!
इस पर हुई बातचीत बेनतीजा रही। उसके बाद मैं भी सोचने लगा कि मित्रों की बात में दम तो है। अंग्रेजी की तरह हिंदी अक्षरों की संख्या एकदम सुलझी हुई क्यों नहीं है? हो सकता है यह मेरा हिंदी भाषाई ज्ञान के प्रति अज्ञान का परिणाम है, फिर भी मैं संशय में था। यही सब सोचते-सोचते मैं एक तरह के सपने में गया, जहां अक्षरों की महासभा शुरू हुई। ऐसा लगा जैसे सारे स्वर हाथ बांधे व्यंजनों के सामने याचनार्थी के रूप में खड़े थे। अनुस्वार और विसर्ग को तो मानो कोई पूछने वाला ही न था। वे तो कोने में पड़े-पड़े रो रहे थे। साथ ही अपने भाग्य पर खुशी मना रहे थे कि लुप्त होते अक्षरों की सूची से बाल-बाल बचते रह गए। लेकिन लुप्त होते अक्षरों की याद रह-रह कर आती और बदले में जब-तब आंसू बहा देते। कुछ अक्षर तो अपने बदलते आकारों और उच्चारणों को लेकर भीतर ही भीतर कुढ़ते जा रहे थे। मानव उच्चारण के आगे अपनी निस्सहायता को लेकर अपनी दुस्थिति पर रो रहे थे।
अंतस्थ अक्षर अपने अंतर में झांक कर अपने खोखलेपन को ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे थे। दुर्भाग्य से उनका अंतस्थ अब अंत की कगार पर आ चुका था। अघोष-सघोष के दबाव में बिखरते जा रहे थे, जबकि सघोष अपने में रह-रह कर कुछ बतिया रहे थे। सरल अक्षर अपनी सरलता का खमियाजा तो संयुक्ताक्षर अपनी संयुक्तता की संस्कृति से कराह रहे थे। अनुनासिक अपने स्वामी की नाक की इज्जत बनाए रखने के लिए नथुनी फुला-फुला कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। महाप्राण तो निराला के जाने के बाद से ही मात्र दिखावे के महाप्राण रह गए थे। अब वे हथेली में अपने प्राण धरे अपनी खैर मना रहे थे। समाज में हो रही अराजकता को देख कर भी जिनके खून की ऊष्मा ठंडी पड़ चुकी हो, उन्हें देख ऊष्माच्चारण वाले अक्षर अपने जन्म को कलंक मानने लगे थे। संयुक्ताक्षर अपने जन्मदाता अक्षरों पर अपनी धौंस दिखाने से बाज नहीं आ रहे थे। रह-रह कर शेष अक्षरों की क्लास लगाने की फिराक में रहते थे।
दीर्घ स्वर अब पहले जैसे दीर्घ नहीं रहे। प्रदूषण के चलते गले की रुंधता दीर्घ उच्चारणों से कतराते नजर आ रहे थे। दीर्घता की कमी के चलते अब आवाज उठाने वाले स्वर लुप्त होते जा रहे थे। यहां सारे के सारे व्यंजन अपनी-अपनी कौम को बचाने में पीसते जा रहे थे। कोई देशज उच्चारण में देशभक्ति तो कोई विदेशज उच्चारण में वैश्वीकरण की गंध देखता था। कोई तत्सम के पीछे अपना समस्तम खोने को तैयार था तो कोई तद्भव के बल पर अपना उद्भव करना चाहता था। कोई कंठाक्षरी होकर गले तक तो कोई तालु भर की ताल बजा कर सामने वाले की मूर्धन्यता से दो-दो हाथ करने की फिराक में था। कोई दंताक्षरी बन कर अपने दांत बजाता था तो कोई ओष्ठाक्षरी की गरिमा के विरुद्ध समाज की बुराई से बचने के लिए अपने ओष्ठ सीकर बैठा था।
अक्षरमाला अपने उच्चारण के स्वार्थ से मोहभंग हो चुके थे। वे सत्ता की आड़ में घमंड करने वालों नेता के झूठे प्रलोभन वाले भाषणों में अक्षरक्रांति करना चाहते थे। ऐसा न करने वाले अपने कौम के अक्षरों को देश-निकाला की भांति अक्षर-निकाला करने की शपथ लेकर बैठे थे। सच तो यह है कि अक्षर सारे कब के मर जाते, वे तो जी रहे हैं उन प्रश्नों के लिए, जिनसे समाज की रक्षा हो रही है।
इस सपने से निकलने के बाद मुझे समझ में आ गया कि हिंदी अक्षरों की गणना करना बेइमानी है। हर अक्षर अपने में खास है। सबका अपना-अपना अहसास है। आवश्यकता है तो इन्हें पहचानने, जानने और समझने की। अक्षरों का प्रेम एक दिव्य सत्य है। यह सर्वविदित है कि अक्षरों के बिना भाषा नहीं हो सकती। इसी प्रकार हिंदी भाषा के बिना देश की एकता की कल्पना नहीं की जा सकती। लोग जाने कहां-कहां घूम आते हैं। मैं तो कहता हूं कि एक बार अक्षरों की महासभा भी घूम आनी चाहिए। इस महासभा की भी अपनी एक रौनक है। इससे अछूता रहकर हम क्या पा लेंगे? बल्कि अधूरे रह जाएंगे। इसलिए समय मिले तो अक्षरों की महासभा घूमने से चूकिए मत।