अमिताभ स.
लक्ष्मी और कुलक्ष्मी बहनें हैं। दोनों में से कौन ज्यादा अच्छी है? नारद मुनि ने फैसला सुनाया कि दोनों ही अच्छी हैं। तर्क दिया कि कुलक्ष्मी जाते हुए अच्छी लगती है और लक्ष्मी आते हुए। लक्ष्मी को लाने के लिए लोगबाग कैसे-कैसे तरीके, हथकंडे अपनाते हैं। फटाफट अमीर बनने के ज्यादातर तरीके दो नंबर के हैं। एक नंबर से अमीर बनने के लिए खासी लंबी और मेहनत भरी पारी जो खेलनी पड़ती है।
वाकया हाल का है। एक बत्तीस वर्षीय साहब ने ‘इन्वेस्टमेंट एंड फाइनेंशियल कंसलटेंट’ सरीखी कंपनी खोली। ऐसे दक्षिण भारतीय शहर में, जहां उसे कोई जानता नहीं था। अपनी कंपनी का बाकायदा शानदार मुख्यालय बनाया। लोगों को फंसाने के लिए समझ-बूझ से पूरा जाल बिछाया। अखबारों में इश्तहार छापे- एक लाख रुपए जमा कराइए और तीन महीने बाद एक लाख साठ हजार रुपए पाइए। लोगों को विश्वास दिलाया गया कि आपकी धनराशि पूर्णतया सुरक्षित रहेगी। लोग झटपट मालामाल होने के चक्कर में जानबूझ कर फंसे। कंपनी के पास करोड़ों के ढेर लग गए। और जैसा अंदेशा था, महाठग पांच सौ करोड़ रुपए बटोर कर चंपत हो गया। ठगी का यह महज एक नमूना है।
दीवाली पर लक्ष्मी-गणेश का समारोहपूर्ण पूजन बदलते-बदलते आज शाहखर्चों का महापर्व बन गया है। आम आदमी तमाम खर्चों के पहाड़ तले दब-सा रहा है। न चाहते हुए भी टनाटन टके खर्च करने की उसकी बेबसी बुरी तरह जकड़े है। सो, हर हाल में लक्ष्मी बटोरने या हथियाने की फिराक में हर कोई है। लक्ष्मी या माया अपनाने के तौर-तरीके नकारात्मक रुख पर हैं। रिश्ते-नाते और मर्यादाएं ध्वस्त हो रही हैं। वकील, चार्टेड एकांउटेंट या डाक्टर को सीधी फीस से तसल्ली नहीं रही।
मरीज या क्लाइंट को ऐसे घुमाते, घनचक्कर बनाते हैं कि ज्यादा से ज्यादा पैसा ऐंठ सकें। मकसद एक ही है- पलक झपकते ढेर सारी लक्ष्मी बटोरने का। पैसा बनाने-कमाने के तमाम जायज-नाजायज तरीके बेधड़क और बेखौफ अपनाए जा रहे हैं। बीते डेढ़ साल के कोरोना काल को निकाल दिया जाए, तो उससे पहले के पंद्रह-अठारह सालों के दौरान जितनी बड़ी तादाद में लोग अमीर हुए हैं, उतने आजादी के तिरपन सालों में भी नहीं बने। जनमानस पर नैतिक-अनैतिक व्यावसायिकता का भूत सवार है।
महात्मा गांधी ने सात सामाजिक पापों में बिना चरित्र के धन को भी सम्मिलित किया है। उनके अनुसार धन बिना कर्म के मंजूर नहीं होना चाहिए, अनुचित साधनों से बिना परिश्रम से कमाया गया धन आस्तेय नहीं, चुराया हुआ धन है। अपने लिए जितना जरूरी हो, उतना रख कर बाकी जनता की अमानत समझ कर न्यासी भाव से उसे कल्याण के कामों में लगाना धनी व्यक्ति का कर्त्तव्य है। पर गांधीवादी कायदा आज ताक पर रख दिया गया समझिए। तमाम सरकारी उपायों के बावजूद घूसखोरी या भ्रष्टाचार के कोढ़ पर रोक नहीं लग सकी है।
रईसी के ठाठ देखिए- ई-शापिंग की रफ्तार तेज हुई है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन आफ इंडिया के आंकडों के मुताबिक दीवाली की आनलाइन खरीदारी में बीती पांच दीवालियों में तिगुने से ज्यादा इजाफा हुआ है। शोध संगठन रेडशीर के मुताबिक बीते साल दीवाली सीजन में पचास हजार करोड़ रुपए की ई-शॉपिंग हुई, जो 2019 में पैंतीस हजार करोड़ रही। यानी कोरोना के मंदी के दौर में हिदुस्तानियों ने पैंसठ फीसद ज्यादा खरीदारी की। इस साल इक्यानबे फीसद खरीदारों ने त्योहारी मौसम में खरीदारी का मन बनाया। पैसा इतना प्रधान हुआ है कि लोग जुए की बाजियां लगा कर दीवाली मनाते हैं।
लक्ष्मी घर लाओ के नाम पर पूरी की पूरी जुआ संस्कृति उभर आई है। सिरफिरे जुआरियों का मानना है कि दीवाली के आसपास जुआ न खेलने वाला अगले जन्म में गधे की योनि में जाता है। मगर हकीकत यह है कि आजकल लाखों लोग करोड़ों का जुआ खेल और उनमें से ज्यादातर हार कर इसी जन्म में ‘गधे’ बन रहे हैं। लोग गलतफहमी में हैं कि लक्ष्मी का अंबार खुशियों से उनकी झोली लबालब भर देगा। पैसा न होने से घटती है खुशी, लेकिन जरूरी नहीं कि ज्यादा पैसा हो तो खुशी बढ़ेगी ही।
सच यह है कि एक दफा गरीबी रेखा पार करने के बाद लक्ष्मी रोज-रोज नई खुशी नहीं दे पाती। एक सीमा के बाद लक्ष्मी आने से खुशी कम होती जाती है, तनाव घेर लेता है। जब पीछे मुड़ कर देखते हैं, तो एहसास होता है कि हर हाल में लक्ष्मी हासिल करने की आपाधापी और भागमभाग में जीवन की दिवाली की कितनी अनमोल खुशी और सुख कहीं छूट गया। खुशी का फव्वारा तो इंसान के भीतर से फूटता है। बाहरी लक्ष्मी से खास फर्क नहीं पड़ता। लक्ष्मी अपने साथ भय भी लाती है। साथ ही, और और लक्ष्मी की चाह अंहकार, अभिमान और घमंड जैसी बीमार मनोवृत्ति का रूप अख्तियार कर लेती है। जितना पास है, उतने की और चाहत पैदा होती जाती है। सो, इस दफा ऐसी लक्ष्मी की नहीं, आध्यात्मिक खुशी और सुख की दीवाली मनाइए।