दिनेश चमोला ‘शैलेश’
बचपन से ही प्रकृति की इतनी अंतरंगता मिली कि कृत्रिमता या बनावटीपन न तन को अच्छी लगी, न मन को। प्रकृति के सान्निध्य में सब कुछ मिला प्राकृतिक। चाहे हवा हो या पानी या फिर संबंधों का विस्तृत संसार। ऐसी जलवायु में पले-बढ़े जीवन में क•ाी परायेपन का बोध नहीं हुआ। सब कुछ अपना-अपना सा लगता। मां हर बरसात में सीढ़ीनुमा खेतों की मुंडेरों पर चारे और फलों के पेड़ लगातीं और लगवातीं, गाड-गदेरों यानी छोटे नाले से कोई अच्छी प्रजाति का पेड़ हमें मिलता तो हम उसे उखाड़ लाते। गर्मी और अलसाए दिनों की लंबी-लंबी दुपहारियां, पक्षियों के मार्मिक खुदेड़ यानी ऐसे पक्षी, जिनके मधुर संगीत से मायके की याद में ससुराली बेटियां सिसकने को विवश होतीं, संगीत की छांव में कब बीत जातीं, पता ही नहीं चलता।
पेड़-पौधों से लेकर गांव की रूमानी प्रकृति तक आत्मीयता का संबंध अनायास ही स्थापित हो जाता।
चाहे अनाज हो पानी या फिर खेतों में डालने वाली खाद, सब कुछ प्राकृतिक। शुद्ध पौष्टिक और स्वच्छ। सुबह-सवेरे नारंगी-माल्टे के पेड़ों पर ढेर सारी चिड़ियों का अनूठे सरगम से चहचहाना, गांव के हरीतिमा परिवेश में सुबह के धुंधलके से पौ फटने तक का समय अलग ही उल्लास और उत्साह हुआ करता। सुबह का सूरज जितनी कुशलता से मेखलाकार पहाड़ियों से अलसाहट को •ागा कर चौखम्बा पर्वत को अपनी सुनहरी किरणों से खिलखिला देता, वही उजास समूचे ग्राम्य परिवेश में नई चेतना •ार कर मानो सबको शक्ति-संपन्न कर देती। फिर जो सबके कामकाज का अपना चरखा चलता तो गई सांझ तक •ाी न थमता। किसान खेतों में ऊब कर नहीं, डूब कर काम करते। इस निश्छल प्रेम और परिश्रम से ही ऊसर धरती अन्न-संपदा से लहरा उठती। किसी को किसी का काम वि•ााजित न होता। बल्कि परिवार के स•ाी सदस्य खुद ही अपनी •ाूमिकाओं को समझते और अटूट कार्य-शृंखला चलती रहती।
कम ही घरों में अलार्मबेल हुआ करतीं, वरना ज्यादातर यह जिम्मा चौक के पेड़ों पर बसेरा करने वाली चिड़ियों के समूहों का ही होता कि वे अपनी समधुर और आत्मीय चहचह से हमें जगाएं। वे क•ाी •ाी अपनी ड्यूटी से विचलित न होतीं। अगर क•ाी किन्हीं कारणों से किस घर के किवाड़ और दरवाजे नहीं खुलते तो चिड़ियां उनकी खिड़कियों और रोशनदानों पर पंहुच कर शोर मचा देतीं। आमतौर पर हर घर के आगे चौक में कुछ फलदार पेड़ हुआ करते, जिन पर इन अलग-अलग प्रकार की चिड़ियों के समूह आपस में वि•ााजित होकर रहते। कुछ छत के खोखले स्थानों पर अपना घोंसला बना देते तो कुछ उन फलदार या अन्य पेड़ों की कोटरों में। घर-आंगन में दो ही चीजें अच्छी लगतीं। या तो प्रांगण में खेलते बच्चों के •ाांति-•ाांति के खेलों से उपजीं किलकारियां या फिर इन चिड़ियों की अपनत्त्व से •ारी नोंक-झोंक। शाम होते ही जैसे इनकी दिन•ार की गतिविधियों की समीक्षात्मक चिल्ल-पों-•ारी दंगल शुरू हो जाती, जो परोक्ष रूप से सांझ के घिर आने का संदेश होती। गांव, पास-पड़ोस और खेत खलिहानों को गया खिलंदड़े बच्चों का हुजूम •ाी उन्हीं की तरह सरपट अपने घरों को आ लौटता।
प्रकृति की ये नजदीकियां जीवन मूल्यों के संरक्षण में •ाी सहायक सिद्ध होतीं। दूसरों से अपनत्व •ाी अपनों से किसी रूप में कम न था। परदेश से गांव का कोई •ाी आता तो उन्हें मिलने का वैसा ही उत्साह रहता, जैसा उनके अपनों का रहता। हम गांव के बच्चे उन्हें बहुत दूर नीचे उन स्थलों तक लेने जाते जहां बसों की अंतिम सीमा होती। फिर तीन-चार किलोमीटर ऊंची उकाल (पहाड़ी ऊंचाई) चढ़नी होती। हम बच्चे मिल-बांट उनके •ाारी बोझे के साथ वह ऊंचाई कब फांद लेते, पता •ाी न चलता। वे •ाी सब बच्चों को अपना मानते। मेहनताने के रूप में मुट्ठी •ार •ाुने चने और गुड़ की टुकड़ी पाकर बच्चे फूले न समाते। अपने गांव वाले श्रेष्ठ व्यक्ति को काफी समय बाद अपने बीच पाकर वह दिन बच्चों के आनंद का होता।
समय का पहिया घूमा तो मौलिकता या असलीपन कृत्रिमता या बनावटीपन में बदलता चला गया। खान-पान से लेकर आचार-व्यवहार में •ाी बनावटीपन का बोलबाला हो गया। आॅर्गेनिक खेती का स्थान रासायनिकों और उर्वरकों ने ले लिया। समष्टिपरक चेतना का स्थान व्यष्टिपरक चेतना ने ले लिया।
आधुनिकीकरण और शहरीकरण ने सुविधाएं तो दीं, लेकिन संस्कार, प्यार, अपनत्व और संवेदनशीलता के •ाावुक संसार को लील लिया। मनुष्य का हृदय पाषाणवत बनता चला जा रहा है। सूचना-क्रांति ने आंसू छीन लिए हैं। अब किसी अपने की याद में नहीं •ारती हैं अपनों की आंखों की पोरें। इसने अपनत्व का मनोरम दौर छीन लिया है। पुरखों की सबके कल्याण, सहयोग और सबको जोड़ कर रखने की पावन-•ाावना को छिन्न-•िान्न कर दिया है। परिवार की वह गौरवमयी माला मनका-मनका बिखर गई है। विश्व-बंधुत्व और सर्वजन का चिंतन करने वाला सुंदर ग्राम्य-परिवेश अब बहुत सिमट गया है। परिवार के ही सदस्य अपरिचितों की तरह रहने को विवश हैं। असलीपन को लीलता यह बनावटीपन गहरी टीस और त्रास देने वाला है।