भगवती प्रसाद गेहलोत

हाल में एक मनोविनोद से जुड़ी बात पर दोस्तों के बीच चर्चा हो रही थी। विषय था कि एक महोदय अपने मित्र के साथ भजिए की दुकान पर खड़े भजिया खा रहे थे। तभी उनके एक मित्र आए और उन्हें टोपी पहना दी। वे जब भजिया खा रहे सज्जन को टोपी पहना रहे थे, तब मुस्कराते हुए इन्होंने अपना सिर आगे कर दिया था। तब तो उन्हें बहुत आनंद आया।

सम्मान का बोध हुआ, मगर जब टोपी पहनने की उस घटना का बनाया विडियो सोशल मीडिया पर प्रचारित हो गया, तो भजिया वाले सज्जन ने उसे देखा। तब उन्हें पता चला कि उनके मित्र तो वास्तव में मुझको टोपी पहना गए। महोदय ने दूसरे दिन आनन-फानन में अपना स्पष्टीकरण देते हुए एक समाचार जारी किया कि वे हमें धोखे से टोपी पहना गए थे। हमारी कोई मंशा टोपी पहनने की नहीं थी। महोदय ने सफाई के तौर पर यह भी बताया कि देखिए, हम अब भी वही पुराने वाले नंगे सिर हैं और हमारा स्कंध अब भी खादी के गमछे के बोझ तले कृतज्ञता से दबा चला आ रहा है! वह तो उन महोदय का स्रेह था कि टोपी लेकर आ गए और हमने सम्मान में कोई एतराज न किया।

यों टोपी का जन्म सिर ढंकने के लिए हुआ था, लेकिन कालांतर में आदमी ने अपने अन्य लाभ के लिए अलग-अलग रूप-रंग, आकार की टोपियां बना लीं और उनको उनके लगाने वालों की पार्टी, राजनीतिक विचारधारा, जाति-धर्म की विचारधारा की पहचान से जोड़ दिया गया और कुछ ने तो इसके लिए अपने-अपने और अलग-अलग नारे भी गढ़ लिए। भजिया खाने वाले मित्र करते भी क्या! उनके नगर में टोपियां अभी नई-नई आई थीं, इसलिए हर कोई उनकी ओर उत्सुकता से देख रहा था। इसके साथ यह भी सोच रहा था कि शायद इनमें से किसी विशेष एक टोपी से हर ओर छाए भीषण ताप के संताप से मुक्ति मिले। इसलिए लोगों को लगा कि यह कोई नई तकनीक की टोपी आई है और उनमें से बहुत सारे लोग मुस्कुराता चेहरा लिए टोपी पहनने लगे थे।

दूसरी ओर, टोपी बेचने वालों ने अपने समूह बना कर अपने मिलने वालों और उनके मित्रों को टोपी पहनाने निकल पड़े। नंगा सिर रखने वाले कहने लगे, ‘अरे हम बहुत मजबूत हैं, जमाने में किसी भी तरह का कितना ही ताप आ जाए, हमारा तन-मन और जड़ें बहुत गहरी हैं, हम सब सह लेंगे। अरे, इन नई टोपियों को क्या पहनना। ये तो हमारे यहां की थोड़ी-सी हवा में सिर से उड़ जाएंगी, फिर नंगे के नंगे। ये टोपियां न अर्थवान हैं, न सामर्थ्यवान।

हमारे पुराने गमछे और गहराते बालों की बात ही क्या? हमारे गमछे को गुलेल बना लो या सिर को ढांप लपेट लो, नकाब बना लो, जरूरत पड़े तो तकिया बना लो, ओढ़ लो, बदन पोंछ लो, कोई कपड़े खींच चड्डी तक उतार दे, तो इसे लपेट कर इज्जत बचा लो, कहीं गंदगी है तो इससे झाड़-पोंछ दो, कुछ बिखर रहा हो तो इससे कस कर बांध दो, एक-दूजे के बीच पुल बना कर गठबंधन कर अपना बना लो। कोई न माने तो मुंह में मीठा ठूंस कर कस कर बांध दो, कोई वार करे तो गमछे के दोनों सिरों को मजबूती से तान कर वार को बचा लो। अब इस टोपी का क्या, कोई भी कभी भी आसानी से उछाल दे तो क्या कर लोगे। भले ही झूठ का सहारा लेकर उछाल दे। एक बार उछल गई, सो उछल गई, फिर आप नंगे के नंगे क्या कर लोगे?’

कुछ लोग महाकवि कालिदास की उक्ति सुनाते हुए तर्क देते हैं कि ‘पुराणमित्यं न साधु सर्वं न चापिकाव्यं नवमित्यवध्यं।’ अर्थात पुराना होने से ही सब कुछ अच्छा नहीं हो जाता और न ही कोई नया होने से, न अपनाने या नष्ट करने जैसा। अत: यदि कोई यह साधारण-सी नई टोपी पहन रहा है, तो हर्ज ही क्या, आखिर सिर तो ढकेगी ही। प्रजातंत्र है भाई, प्रयोग सर्वत्र स्वीकार्य है। शायद कोई सुपरिणाम निकल आए।

उनके मन में यह ऊहापोह मची ही थी कि फिर कोई आया और उन्हें एक तगड़ी टोपी पहना गया। वैसे तो आजकल हर कोई हर क्षेत्र में दबंगई या भोलेपन के साथ एक दूजे और सामान्य आदमी को तगड़ी टोपी पहनाने में लगा हुआ है, बस फर्क सिर्फ इतना होता है कि ये टोपियां, टोपी पहनाने के जुमले से जुड़ी हुई हैं। जैसी आदमी की क्षमता वैसी टोपी। बस समय और परिस्थिति के अनुसार टोपी पहनाने की कला और तकनीक आनी चाहिए। टोपी पहनाते समय न तो इंसानियत देखी जाती है और न मानव धर्म, न राष्ट्र धर्म केवल स्व-लाभ ही अपना लक्ष्य होता है। टोपी पहनाना एक कला है, तो टोपी पहनना एक असावधानी।