एकता कानूनगो बक्षी
क्रमागत विकास भी कुछ इसी तरह होता रहा है, जिसमें आने वाली पीढ़ी प्रभाव खो चुके पुराने तौर-तरीकों, विचारों और जीवन को त्याग कर बेहतर, सुदृढ़ और परिष्कृत चीजों को अपनाती जाती है। इसी तरह, नए समाज और नई दुनिया की स्थापना संभव होती है।
हम सभी विकास की एक लंबी प्रक्रिया से गुजरते हुए आज की स्थिति तक पहुंचे हैं। पूर्वजों से पाई वंशानुगत खूबियां और कमजोरियां भी हमें हमारे अतीत से हमेशा जोड़े रखती हैं, लेकिन केवल वही हमारे व्यक्तित्व को परिभाषित और संतुष्ट नहीं कर सकतीं। हमारे भीतर एक आकांक्षा अपने वर्र्तमान और भविष्य को बीते हुए से बेहतर बनाने के लिए सदैव बनी रहती है।
यों प्रकृति खुद भी थोड़ा बेहतर रूपांतर करती चलती है। वंशानुगत दोष अगली पीढ़ी में धीरे-धीरे कम होते जाते हैं। शारीरिक रूप से दुर्बल माता-पिता की संतान आपको पहलवान या खिलाड़ी के रूप में नजर आ सकती है। वहीं अशिक्षित परिवार के कई होनहार बच्चे प्रवीणता प्राप्त कर ‘गुदड़ी के लाल’ कहे जाने का सम्मान पाकर ख्याति अर्जित करते हैं। कई उदाहरण देखे जा सकते हैं जब नई पीढ़ी ने पुराने दकियानूसी परंपराओं और विचारों का बहिष्कार कर प्रगतिशील और सुधारवादी विचारों को अपनाया है।
स्नेह के धागों में गुंथे हुए पारिवारिक रिश्तों में एक दूसरे की देखभाल, सुख-दुख में भागीदारी जैसा सुखद पक्ष परिवार के सदस्य को मानसिक संबल देने के लिए हमेशा मौजूद होता है। अब नई तकनीकी के समय में सहज वीडियो संपर्क और अन्य सोशल मीडिया माध्यमों के चलते एक-दूसरे के बीच की दूरियां कम हुई हैं।
ऐसे में देखा जाए तो हताशा, निराशा का कोई कारण नहीं बनता। सवाल है कि क्यों फिर कोई व्यक्ति अवसाद, निराशा और कभी-कभी आत्महत्या जैसे कदम उठाने को तत्पर हो जाता है? बेशक बिगड़ती मानसिक अवस्था के लिए हार्मोनों में असंतुलन को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसके लिए बड़े-बुजुर्गों की सीख से लेकर चिकित्सीय परामर्श के उपाय होते हैं। फिर भी बुरे समय में अपने ही प्रति क्यों कोई व्यक्ति उन सब सीखों को भुला बैठता है?
दरअसल, ‘मानसिक स्वावलंबन’ एक ऐसा जरूरी विषय है, जिसके तहत कोई व्यक्ति खुद अपने आपको, अपनी भावनाओं को समझ कर विवेक के साथ अपने हर कदम को नियंत्रित करता है, जिससे उसका जीवन बेहतर हो सके। दूसरों के किसी भावनात्मक सहयोग और सांत्वना पर आश्रित हुए बगैर इस क्षमता को हम उस व्यक्ति के ‘मानसिक स्वावलंबन’ के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।
कुछ लोग अपने आपको अभिव्यक्त करने में कोई संकोच नहीं करते। वे अपनी परेशानियों, बेचैनियों को दूसरों से साझा कर अपने मन को हल्का कर लेते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो भीतर ही भीतर अपनी परेशानियों से जूझते रहते हैं, किसी को अपना दुख बता नहीं पाते। ऐसे में कई बीमारियां उन्हें घेर लेती हैं। आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम भी उठाने में उन्हें संकोच नहीं होता।
‘मानसिक आत्मनिर्भरता’ के बीज बचपन से ही डाला जाना बेहद जरूरी है। एक उम्र के बाद अभिभावक अगर बच्चे के जीवन से जुड़े निर्णय ले रहे हैं तो वह अनजाने में उस क्षेत्र में जा रहे हैं जहां उनका होना किसी के व्यक्तित्व निर्माण में बाधक बन सकता है। खुद निर्णय लेने का साहस किसी भी व्यक्ति के दिमाग और मन को उससे होने वाले हानि-लाभ के लिए तैयार करता है। गलतियां केवल नुकसान नहीं करतीं, वे परोक्ष रूप से हमारा आत्मबल भी बढ़ाती हैं। बचपन की छोटी-छोटी गलतियों से जो सबक मिलते हैं, वे भविष्य के किसी भारी नुकसान से बचाने और उससे संघर्ष करने के लिए हमें तैयार करते हैं।
मानसिक स्वावलंबन की अपनी कुछ सीमाएं भी होती हैं। कहीं हम अति तो नहीं कर रहे अपने आकलन में, यह भी देखा जाना चाहिए। कहीं हमारे अंदर पूरी दुनिया को जीतने की तमन्ना तो उड़ान नहीं भर रही है… अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझने की कहीं हम भूल तो नहीं कर रहे। आने वाले दिनों में कोई न कोई बेहतर प्रदर्शन कर हमसे आगे निकल जाएगा, तब अपनी हार से खुद को उबारने में कितनी दिक्कत आएगी! इसलिए होना तो यह चाहिए कि हार और जीत, दोनों ही स्थिति में परिवार के सदस्य विनम्र रहें और आने वाले समय में भटकाव से दूर मेहनत, अनुशासन, एकाग्रता को अपने भविष्य की कामयाबी के लिए औजार की तरह उपयोग करें।
गिर कर उठना, दुख के बाद फिर से मुस्कुराना, संघर्ष करना और असफलता से सबक सीख कर सफलता के लिए फिर संघर्ष करना और एक दिन बेहतर कर जाना…! प्रकृति के साथ तारतम्य बिठा कर रोज हंसते-हंसते नए जीवन की शुरुआत करना बस यही मानसिकता धीरे धीरे ‘स्वावलंबन’ में बदलती जाती है। यही तो हर कोई चाहेगा।