आजकल सवेरे से ही सूरज की किरणों के फैलाव से डर लगने लगता है। गरमी के रिकार्ड हर रोज टूटते जाते हैं। पंखा और एसी की हवा भी जैसे शरीर को नहीं छूती। ऐसे में जिनके पास नहाने को तो क्या, पीने को भी पानी नहीं है, उनके बारे में सोच कर दहशत-सी होती है। पानी इकट्ठा करने के जो पुराने तौर-तरीके हैं, वे लगभग भुला दिए गए हैं। पता नहीं, यह कैसे और कब मान लिया गया कि हमारे खर्च करने के लिए पानी का प्रबंधन कोई और करे, हम पानी को खूब बर्बाद करें। फिर जब पानी न हो तो सोचें कि अब कैसे काम चले। पहले भी पीने योग्य पानी शायद हर जगह नहीं मिलता होगा। इसीलिए जगह-जगह पानी पिलाने के लिए प्याऊ की व्यवस्था की जाती थी।
बड़े-बड़े घड़ों में भर कर पानी रखा जाता था, जानवरों के लिए बड़ी-बड़ी नांद में भरा जाता था और चिड़ियों के लिए मिट्टी के बर्तनों में पानी छायादार जगहों पर रखा जाता था। कोई प्यास के कारण न मरे, अधिकतर लोगों का ध्यान इस ओर रहता था। ‘जागते रहो’ फिल्म का अंतिम दृश्य और ‘ठाकुर का कुआं’ कहानी पानी पिलाने की उदारता और पानी के कारण होने वाली नृशंसता की कहानी ही कहती हैं। लेकिन आज देश में करोड़ों लोग प्यासे हैं।
बचपन को याद करती हूं, आसपास के गांवों के बारे में सोचती हूं, तो शायद ही कोई ऐसा गांव था जिसमें एक-दो तालाब और पोखरें नहीं होती थीं। और कुओं के तो कहने क्या! मगर जब से हैंडपंप और ट्यूबवेल लगने शुरू हुए तो कुओं ने अपनी चमक खो दी। पचास साल पहले पाठ्यपुस्तकों में बताया जाता था कि अपने कुएं के पानी को कैसे साफ-सुथरा रखें और गंदगी, कूड़े-कचरे से बचाएं।
कुछ दिन पहले पता चला था कि मेरे गांव का जो कुआं हमारे घर के पास था, उसमें र्इंटें भर दी गई हैं क्योंकि अब कोई उसका उपयोग नहीं करता। अब घरों मे हैंडपंप भी कम दिखाई देते हैं। नल लग गए हैं न! नलों में पानी नहीं आता, इसकी शिकायत तो अक्सर लोग करते हैं, मगर वे न तो हैंडपंप से पानी खींचना चाहते हैं और न पानी का ठीक से प्रबंधन करना चाहते हैं। एक समय अपने देश में पानी का इस तरह से प्रबंधन किया जाता था कि साल भर पानी की कमी नहीं होती थी। उन इलाकों में भी, जहां बारिश बहुत कम होती है।
इस विषय पर जाने-माने पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने दो बेहद दिलचस्प किताबें लिखी हैं- ‘आज भी खरे हैं तालाब’ और ‘राजस्थान की रजत बूंदें।’ इन किताबों से पता चलता है कि पानी को इकट्ठा करने और उसे सुरक्षित रखने की महत्त्वपूर्ण, मगर आसान-सी प्रविधियां कौन-सी थीं। इस किताब की सहायता से विदेशों में बहुत से स्थानों पर पानी की बचत के तरीके सीखे गए हैं। मगर अपने देश में सीखने की प्रक्रिया भी कुछ ऐसी है कि हमारे काम के लिए कई दूसरा सीख ले और दूसरा ही मेहनत कर ले। यों भी, हर काम को सरकार के जिम्मे मान लिया गया है। हालांकि सरकारों की जिम्मेदारी भी इसमें कम नहीं है। पानी, जंगल, जमीन पर जब से सरकारी गिद्ध दृष्टि लगी, तब से लोग अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं।
आज चारों ओर पानी के लिए इतना हाहाकार है। पानी की गाड़ियां चलाई जा रही हैं। कुओं में पानी भरा जा रहा है। फिर पाइपलाइन से उसे पहुंचाया जा रहा है। पानी पहुंचाने का यह कृत्रिम तरीका आखिर कब तक कारगर हो सकता है? क्या ऐसा होना असंभव है कि हर शहर, गांव, कस्बा अपने पानी के प्रबंधन की जिम्मेदारी खुद उठाए, जो कुएं, तालाब मृत मान लिए गए हैं या शहर भर की गंदगी फेंकने के काम आते हैं, उन्हें पुनर्जीवित किया जाए, बारिश के पानी के संचयन की व्यवस्था की जाए, इस अभियान को बारिश से पहले चलाया जाए, लोगों को इसके बारे में जागरूक किया जाए, उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए, तो ऐसा नहीं है कि इसमें सफलता नहीं मिलेगी। जो व्यक्ति पानी को गंदा करे, वह अपने लिए खुद दंड भी निर्धारित करे।
चंडीगढ़ की सुखना झील और गुजरात की साबरमती नदी इस बात का अच्छा उदाहरण है कि अगर किसी काम में लोगों की भागीदारी और जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाए तो कोई काम मुश्किल नहीं है। हां, एक बात सोचने योग्य जरूर है। आज पानी के व्यवसाय का युग है। यह अरबों-खरबों का है। गांव-गांव सुराही की जगह बोतलें जा पहुंची हैं। अगर लोगों को आसानी से शुद्ध पानी मिल जाए तो इस व्यवसाय को करने वालों का क्या होगा! आखिर लोगों की कोई मजबूरी व्यापार को इतना मुनाफा कैसे दिलवाती है, यह देख कर आश्चर्य होता है।