क्षमा शर्मा
कड़कड़ाती ठंड, ऊपर से झमाझम बारिश। हर तरफ सील और गीलापन। घर में रहते हुए भी त्राहि-त्राहि। कई दिन कांपने और हा-हा खाने के बाद जब धूप के दर्शन हुए, तो कुछ राहत मिली। नीचे उतर कर पार्क की तरफ बढ़ी। घास अभी तक थोड़ी-सी गीली थी। पेड़ों के पत्तों से भी रह-रह कर बूदें टपक उठती थीं। लेकिन धूप अच्छी बहुत लग रही थी। मेरी तरह और भी बहुत-से लोग वहां थे। एक महिला मटर छील रही थीं। एक के हाथ में सलाई और ऊन थी, जबकि इन दिनों स्वेटर बुनते बहुत कम महिलाएं दिखाई देती हैं। कई लोग मोबाइल पर व्यस्त थे।
आगे की तरफ बढ़ी, तो कोने में एक सफेद-काले रंग की बिल्ली हमारी उपस्थिति से बेखबर, सोई दिखाई दी। उसे भी धूप की तपिश चाहिए थी। हमारी तरह उसके पास सर्दी से बचने के लिए न कोई छत थी, न रजाइयां और कंबल, न ही हीटर का इंतजाम। उसकी पूंछ धीरे-धीरे हिल रही थी। मूछें भी कभी-कभार फड़कती थीं। फिर कमर में सिर घुसा लेती थी।
मैं देर तक उसे देखती रही। उसे पुचकारने की कोशिश की, तो अपनी दार्इं आंख आधी खोल कर बेमन से देखा, जैसे कह रही हो कि क्यों तंग कर रही हो। बड़ी मुश्किल से सूरज बाबा के दर्शन हुए हैं, सोने दो। मैं सोच में पड़ गई। क्या पता उसके शिशु भी आसपास हों। लेकिन अगर होते तो यह उन्हें अकेला छोड़ कर, यहां क्यों होती। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि बड़े होकर, अपनी-अपनी राह गए हों जैसे कि हमारे बच्चे चले जाते हैं।
बताते तो यह हैं कि एक उम्र के बाद इनकी स्मृति कोशिकाएं यानी सेल्स नष्ट हो जाते हैं और ये अपने माता-पिता को भी भूल जाते हैं। मां से संबंध तभी तक रहता है, जब तक वह इन्हें पालती है और ये बड़े नहीं हो जाते। मनुष्यों में स्मृति कोशिकाएं नष्ट नहीं होतीं, लेकिन बहुत बार बच्चे भी तो अपने माता-पिता को भूल ही जाते हैं। वृद्धाश्रमों में रहने वाले या अकेले छोड़े बजुर्गों से ऐसी मार्मिक कहानियां सुनी ही जाती हैं।
खैर, बिल्ली से दूर हट कर मैं एक बेंच पर बैठ गई। लेकिन रह-रह कर उस पर निगाह जाती। तभी एक किशोर उधर आया। उसके हाथ में क्रिकेट की गेंद थी। वह उसे इधर-उधर उछाल कर खेलता रहा। बैठे लोग डरते रहे कि कहीं गेंद उन्हें ही न लग जाए और वे चोटिल हो जाएं। तभी उसे न जाने क्या सूझा कि उसने पार्क में पड़े र्इंट के टुकड़े को उठाया और बिल्ली पर दे मारा। वह अकबका कर उठी और भाग गई। बिल्ली को निश्चय ही कितनी चोट लगी होगी, मगर वह किसी से शिकायत भी नहीं कर सकी।
उस किशोर को ऐसा करने पर किसी ने नहीं डांटा। मैंने भी नहीं। क्योंकि इन दिनों आप किसी के बच्चे से गलत करने पर भी कुछ नहीं कह सकते। माता-पिता लड़ने आ जाते हैं और कई बार खूनी युद्ध शुरू हो जाते हैं। रास्ते में सोए कुत्तों के साथ भी लोग यही करते चलते हैं। वे सोए हुए कुत्तों पर जोरदार लात जमाते हैं और हंसते हुए आगे बढ़ जाते हैं। जो जानवर आपसे कुछ नहीं कह रहा, उसे सताने की बात हमारे दिलों में क्योंकर आती है, आज तक नहीं समझ सकी। आखिर धूप में सोई उस बिल्ली ने उस किशोर से क्या कहा था, उसका क्या बिगाड़ा था, लेकिन उसने उस पर हमला करने से कोई परहेज नहीं किया। क्या पता अगर क्रिकेट की गेंद मारी होती, तो बिल्ली इतनी चोटिल होती कि मर ही जाती।
जानवर भी इस धरती के उतने ही वासी हैं, जितने कि हम। उनके भी इस पर रहने और जीवित रहने के वही अधिकार क्यों नहीं हैं जो हमारे। यह मनुष्यवादी राजनीति कि जो कुछ है, सिर्फ हमारे लिए है, ने जानवरों के जीवन को कितना दुरूह कर दिया है। अगर जानवर अपने प्रति मनुष्य द्वारा बरती गई नृशंसता को कह सकते, तो पता चलता कि हमने उनके प्रति बिना शर्मिंदा हुए, उन पर कितने अत्याचार किए हैं। बेवजह उन्हें कितना सताया है, उनके हक की चीजें हड़पी या बर्बाद की हैं।
हम मंगल, बृहस्पति, शनि, बुध आदि ग्रहों पर अरबों रुपए खर्च कर-करके अंतरिक्ष यान भेजते हैं। और वहां जीवन की तलाश करते हैं। काश, और कुछ नहीं तो कोई वायरस ही मिल जाए। और इस धरती पर मनुष्य से इतर जो भी जिंदगियां हैं, उन्हें अपना सेवक और गुलाम समझते हैं। वे जब तक उपयोगी हैं, बस तभी तक अच्छे लगते हैं। वरना उनकी जिंदगी हमारी मुट्ठियों में रहती है। जैसे चाहे गरदन मरोड़ दें, मार दें, घायल कर दें। आखिर हम कौन होते हैं, जानवरों को सताने वाले। मगर अपनी ताकत और बुद्धिमता का अहंकार इतना ज्यादा है कि कमजोर को सताने में ही वीरता समझते हैं। दूसरे प्राणियों के प्रति करुणा का भाव जैसे छीजता गया है।
