भावना मासीवाल

हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति हिंसा आम बात है। फिर चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक या फिर शाब्दिक। हमारे आसपास स्त्रियों के खिलाफ घटने वाली शारीरिक हिंसा की घटनाओं के प्रति आक्रोश और विरोध आम जनता में आमतौर पर देखा जाता है, लेकिन स्त्रियों के प्रति होने वाली मानसिक और शाब्दिक हिंसा पर बात नहीं होती है। स्त्री हिंसा का यह स्वरूप स्त्री चेतना को संवेगात्मक स्तर तक प्रभावित करता है।

कभी-कभी हिंसा का यह स्वरूप इतना बर्बर हो जाता है कि वह आत्मघाती बन जाता है। हमारे आसपास सामान्य व्यक्ति से लेकर उच्च पदस्थ प्रशासनिक, न्यायिक और राजनीतिक महकमों तक में स्त्री के प्रति शाब्दिक हिंसा और उसके चारित्रिक हनन के लिए अशोभनीय भाषा, शब्दों का प्रयोग आम बात है। जिस पर कभी बहस होती है तो कहीं मौन विरोध तो कई बार कुछ लोग उसके पक्ष में भी खड़े दिखाई देते हैं।

फिर कुछ समय बाद सब ठंडा होकर गैर-जरूरी मुद्दा बन कर दबा दिया जाता है। इतना ही नहीं राजनीति में सक्रिय कई नेताओं पर महिलाओं के प्रति आपत्तिजनक टिप्पणी और दुर्व्यवहार के मुकदमे दर्ज होते रहते हैं। बावजूद इसके यही स्त्री सुरक्षा और सम्मान पर बहस करते हैं और महिलाओं की सुरक्षा की पैरोकारी करते देखे जाते हैं। हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि आम व्यक्ति से लेकर पढ़े-लिखे प्रबुद्ध वर्ग की भाषा में महिलाओं के प्रति अशोभनीय और आपत्तिजनक टिप्पणियां सामान्य हैं। जो राजनीति किसी देश और राष्ट्र की पथ-प्रदर्शक होती है, वह भी महिलाओं पर ऐसे हमले करने से गुरेज नहीं करती। भारतीय राजनीति में महिला हिंसा की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए मजबूती से कार्य करने की अपेक्षा इन घटनाओं के लिए पीड़ित को ही दोषी बनाने की मानसिकता मौजूद है।

महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में फब्तियां कसना हो, छेड़छाड़, यौन दुर्व्यवहार या बलात्कार जैसे जघन्य अपराध ही क्यों न हो, आम लोगों से लेकर नेताओं तक के मुंह से ऐसे बयान सुनने के मिल जाते हैं, जिससे उनके सभ्य या संवेदनशील होने पर सवालिया निशान उठता है। कई बयान तो बेहद संवेदनहीन तरीके से पीड़त महिलाओं या लड़कियों को ही कठघरे में खड़ा करने की मंशा से दिए जाते हैं।

ऐसे लोगों और नेतओं के लिए स्त्री के खिलाफ हिंसा और फिर उसकी मृत्यु मायने नहीं रखती है। मायने रखती है तो केवल सत्ता। उन्हें बेटियों के संस्कार की चिंता होती है, मगर बेटे जो अपराध की घटनाओं को अंजाम दे रहे है, उनकी कोई फिक्र नहीं। इनकी दृष्टि आज भी स्त्री को मनुष्य नहीं मानती है। शायद यही वजह है कि किसी नेता के मुंह से सार्वजनिक मंच से ऐसे बयान सुनने को मिल जाते हैं कि ‘लड़कों से गलती हो जाती है..!’

यह वही समाज है जहां एक मासूम का बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी जाती है तो राजनीतिक पक्ष इस अपराध को गलती बताते हुए महिलाओं के विरुद्ध उत्पीड़न की मानसिकता को सार्वजनिक मंच से प्रोत्साहन देता है। न्याय के पैरोकारों द्वारा बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के संदर्भ में स्त्रियों के प्रति विभिन्न तरह की टिप्पणियां उनकी मानसिकता को प्रदर्शित करता है।

कुछ समय पहले एक अहम पद पर रह चुके व्यक्ति ने यौन जरूरतों के अभाव को बलात्कार से जोड़ कर जैसे विचार जाहिर किए, वह हैरान करने वाला था। उसने यहां तक कह डाला कि भारत जैसे रूढ़िवादी देश में यौन संबंध शादी के बाद ही संभव है, लेकिन जब बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है तो बड़ी संख्या में युवाओं की शादी नहीं होगी, क्योंकि कोई लड़की बेरोजगार से शादी नहीं करेगी। ऐसी टिप्पणियां मर्द कुंठाओं और समाज की मानसिक दशा को प्रदर्शित करती हैं।

हमारे समाज में मां-पिता बेटियों को बचपन से नैतिक मूल्यों, इज्जत, संस्कार की शिक्षा देते हैं, लेकिन इन अपराधों को अंजाम देने वाले बेटों को समझाने की बजाय उनके द्वारा किए गए अपराधों के बचाव में खड़े होकर समाज में स्त्रियों के प्रति आपराधिक प्रवृत्ति को और बढ़ावा देते हैं। क्या माता-पिता को बेटियों को हिदायत देने संस्कारों की शिक्षा देने के बजाय बेटों को सभ्य और संवेदनशील इंसान बनाने का सामाजिक प्रशिक्षण नहीं देना चाहिए, ताकि उनकी बेटियां सुरक्षित रहें?

एक सभ्य समाज में महिलाओं के प्रति अनुचित टिप्पणी को अपराध माना जाता है, लेकिन हमारे देश में महिलाओं के शरीर को लेकर अपमानजनक टिप्पणियों से लेकर उनके व्यावसायिक और व्यक्तिगत जीवन से संबंधित आपत्तिजनक और अशोभनीय शब्दों का प्रयोग करना सामान्य बात है। राजनीतिकों की ओर से ऐसे तमाम बयान आते रहते हैं जो भारतीय राजनीति में महिलाओं के प्रति तुच्छ दृष्टि को उभारते हैं।

दरअसल, लैंगिक पूर्वाग्रहों और कुंठाओं से ग्रस्त सोच पूरी व्यवस्था का हिस्सा है। यह बेवजह नहीं है कि आज भी बलात्कार की घटनाओं में कमी नहीं आई है, बल्कि इन सबके बीच में स्त्रियों पर बढ़ती हिंसा के जरिए स्त्रियों पर अधिकार प्राप्त करने और उसे वस्तु बनाने की मानसिकता का ही विकास हुआ है। समाज को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाए जाने की प्रक्रिया में सबसे पहले राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायिक महकमों को महिलाओं के प्रति लैंगिक पूर्वाग्रहों से मुक्त और स्त्रियों के प्रति संवेदनशील बनाए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि ये सभी सत्ता और शक्ति के प्रतीक हैं।