मौत आदिकाल से ही मनुष्य को झकझोरती आई है। हालांकि मनुष्य के अलावा भी यह सभी प्राणियों के बीच बराबर दुख और भय पैदा करती है, लेकिन इस पर विचार की प्रक्रिया जानने की वजह से मनुष्य ने इसकी परतों को समझने की कोशिश की है। इसके बावजूद सच यह है कि आज विज्ञान की पहुंच अंतरिक्ष तक हो चुकी है, मगर मौत की शाश्वत घटना को रोकने में विज्ञान असहाय साबित हुआ है। भारतीय दर्शन में मौत को कई दृष्टिकोण से देखा गया है। चार्वाक को छोड़ कर सबने इसे मोक्ष से संबद्ध करने की कोशिश की है। लेकिन इन दार्शनिक विवादों से अलग अगर इसके सामाजिक आयामों पर बात करें तो मौत एक साधारण परिवार के लिए काफी कष्टकर होती है। गरीबों के लिए तो यह किसी मुसीबत से कम नहीं होती, खासकर उस परंपरा में जहां ‘गोदान’ अनिवार्य हो।

कई बार तो परिस्थितियां काफी भयावह हो जाती हैं, जब मरने वाला व्यक्ति परिवार का एकमात्र आय अर्जित करने वाला हो।  ऐसे में पीड़ित परिवार की किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति को देख कर शायद ही किसी व्यक्ति का मन द्रवित न हो। कई बार उस घर के बच्चे एक तरह से बंधुआ मजदूरी को ही अपनी नियति मानने को विवश हो जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद वह परिवार हार नहीं मानता। कुछ समय बाद वह अपनी बाल सुलभ चंचलता को त्याग कर जी-जान से मेहनत करने की सोचता है, ताकि वह अपनी परिस्थितियों को बदल सके। लेकिन उसे यह कहां मालूम होता है कि दुनिया इतनी सीधी नहीं! इस लिहाज से देखें तो हमारे समाज में निम्न मध्यमवर्गीय होना एक राहत की बात है। शायद इसलिए कि जहां देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को दो जून की रोटी भी मयस्सर न हो, वहां ऐसी दिक्कत का सामना न होना खास तो है ही!

ऐसे में मौत के मायने कुछ बदले हुए होते हैं। यहां मौत होती है, लेकिन वर्ग के मुताबिक मातम मनाने का तरीका अलग होता है। मौत प्राकृतिक हो तो ऐसे में गंभीरता मातमी माहौल को बयान करती है।यहां दुख तो होता है, लेकिन उसकी तीव्रता और उसके असर का भय गरीब परिवारों के मुकाबले कम होता है। अगर किसी ऐसे व्यक्ति की मौत हो गई, जो आर्थिक दृष्टि से उपादेय हो तो उस पर निर्भर उसके नजदीकी परिजनों के बीच कुछ अलग तनाव दिखता है। गीता में कृष्ण ने कहा है- ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: / न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।’ आज गीता का यह श्लोक भी समाज के सभी वर्गों को एक अर्थ देने में असमर्थ है। मौत के संदर्भ में यह श्लोक उच्च मध्यमवर्ग का संदर्भ देता है। यहां भी मौत को कमोबेश निम्न मध्यमवर्ग की ही तरह लिया जाता है। लेकिन यहां कुछ बदलता है तो वह है मृत्यु के बाद ‘आत्मा’ को मुक्ति दिलाने की तीव्र इच्छा, जो काशी और चंदन की चिता से प्रारंभ होकर स्वर्ण कलश में अस्थि विसर्जन तक चलती है।

यहां सभी विधि-विधान का पालन किया जाता है। बाह्य आडम्बर का चरम इस वर्ग में आमतौर पर देखने को मिलता है और यह सीधे परिवार के ‘स्टेटस सिम्बल’ से जुड़ा होता है। इस वर्ग में श्राद्ध में जिस उदारता के साथ दान दिया जाता है, वह कई महीनों तक फिजां में बरकरार रहता है और दानकर्ता के रसूख की चर्चा होती रहती है।इन सबसे इतर शहरों में ‘सूक्ष्म परिवार’ के साथ मौत के मायने भी काफी सिमटे हुए लगते हैं। ऐसे मामलों में प्राकृतिक मौत को लेकर दुख को बहुत ज्यादा तीव्रता के साथ जाहिर करते हुए नहीं देखा जाता। यहां कुछ लोगों द्वारा मौन धारण ही इसकी पुष्टि करती है कि शायद किसी की मौत हो गई है। वहां संभव है कि एक वाहन द्वारा शव को चंद लोगों की सहायता से बिजली से चालित शवदाह गृह तक ले जाया जाए, जहां कुछ ही देर में शव को जला दिया जाए।

सभी कार्यों की औपचारिकता एक ही दिन में निपटाने की कोशिश की जाती है, ताकि अगले दिन रोजमर्रा के कार्य प्रभावित न हों। बहरहाल, मौत एक सार्वभौमिक सत्य है और सभी जीवित प्राणी के लिए अनिवार्य। लेकिन हममें से कोई भी अपनी मौत को लेकर सही मायने में निश्चिंत होना चाहता है तो इसके लिए न तो जगत को मिथ्या मान कर संसार से निरपेक्ष होने की जरूरत है और न ही ‘सब कुछ केवल दुख है’ के भाव से प्रभावित होकर निराश बैठने की। बल्कि जरूरत है तो सिर्फ मानवता के रास्ते पर चल कर कबीर की इस पंक्ति को साधने की कि ‘सार्इं इतना दीजिए, जा मे कुटुंब समाय / मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।’ तभी हम अपनी मौत की आशंका से पैदा होने वाले मानसिक उतार-चढ़ाव से मुक्त होकर स्थिर हो पाएंगे।

हरि किशोर यादव