किसी भी शख्सियत की सोच और उसके विचार उसके परिवेश, अवलोकन और ग्राह्य शक्ति पर निर्भर करते हैं। कई बार एक घटना भी किसी की सोच की दिशा बदल सकती है। सोच और समझ ही सामाजिक चेतना की आधारशिला होती है। मैंने 2009 में इलाहाबाद के एक कॉलेज में स्नातक में दाखिला लिया था। कुछ समय बाद छात्र संगठन और कॉलेज प्रशासन के बीच कुछ मुद्दों पर उठे विवाद ने इतना तूल पकड़ लिया कि एक रात बारह बजे परिसर में पुलिस आ गई और अंधाधुंध फायरिंग की। दो छात्रों को गोली लगी और तत्काल प्रभाव से विश्वविद्यालय ने अनिश्चितकाल के लिए ‘एमर्जेंसी’ घोषित कर दी। छात्रों के साथ-साथ छात्राओं को भी बिना किसी सुरक्षा के परिसर के बाहर निकाल दिया गया। मैं परिसर के बाहर के हॉस्टल में रहती थी। वहां से रात में तो हमें नहीं निकाला गया, मगर सुबह ही छात्रावास खाली करने को कहा गया। वह पूरी रात सारी लड़कियों ने एक दूसरे को संभालते हुए किसी तरह बिताई। लगभग सब आसपास के थे और उनके कोई न कोई स्थानीय परिचित थे।
सुबह पांच बजे तक सिर्फ तीन लोगों को छोड़ सब चले गए थे। तब मेरे पास मोबाइल भी नहीं था। दूसरे के फोन से रात में एक बार मां से बात हुई थी। पापा ने अपने वहां पहुंचने तक अपनी जान-पहचान के किसी व्यक्ति के पास रेलवे कॉलोनी पहुंचने के लिए कहा। मगर वहां जाने के लिए जो पुल पार करना था, उसे विद्यार्थियों ने बंद कर रखा था, ताकि कॉलेज प्रशासन पर दबाव बनाया जा सके। मुझे न तो कोई और रास्ता मालूम था और न मैं किसी को जानती थी। हम तीन लड़कियां किसी तरह स्टेशन पहुंचीं। पहले मैं पापा के बताए परिवार के पास गई, बाद में अपने घर के लिए ट्रेन पकड़ ली।
भविष्य बनाने के जिस सपने और उत्साह के साथ मैं इलाहाबाद गई थी, वह धराशायी हो चुका था। साल बर्बाद होने का डर लग रहा था। घर आने के लगभग दो महीने बाद विश्वविद्यालय से पत्र आया कि पढ़ाई फिर से शुरू होगी। मगर मुझ पर उस रात का तनाव और फिर दो महीने का इंतजार इतना भारी पड़ा था, जिसे बिसराया नहीं जा सकता।
चूंकि राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहने की मेरी पृष्ठभूमि नहीं थी, इसलिए हो सकता है कि मेरे लिए वह प्रसंग एक सदमे की तरह था। लेकिन सच यही है कि किसी भी शिक्षण संस्थान या विश्वविद्यालय में ज्यादातर विद्यार्थी पढ़ने-लिखने और अपना भविष्य बेहतर बनाने जाते हैं। छात्र संगठनों में सक्रियता से विद्यार्थियों को फायदा होता है, तो कई बार नुकसान भी हो जाता है। खासतौर पर जब परिसर के भीतर ऐसी स्थिति पैदा हो जाए कि सामान्य पढ़ाई-लिखाई बाधित हो जाए, तो यह विद्यार्थियों के भीतर नकारात्मक भाव भरता है। इसमें कुछ छात्र-छात्राएं किसी मुद्दे पर आंदोलन छेड़ देते हैं, तो बाकी को उसी मुताबिक चाहते या न चाहते हुए उसमें शामिल होना या पिसना पड़ता है।
फिर अगर किन्हीं वजहों से परिसर में पुलिस या प्रशासन का दखल हुआ तो कॉलेज प्रशासन के प्रति भी काफी गलत भावनाएं मन में बैठ जाती हैं। इसके बाद बाहर बैठे राजनीतिक दल इसका फायदा उठाते हैं। अपने आंदोलन में विद्यार्थी जो मुद्दे उठाते हैं, वे पीछे चले जाते हैं। दूसरी ओर, विरोध जताने वाले विद्यार्थियों के साथ बातचीत से कोई रास्ता निकालने के बजाय संयम खोकर पुलिस बुला कर गिरफ्तारी, लाठी या गोली चलवाना गलत है। ऐसे हालात में कई बार गेहूं के साथ घुन पिसने वाली बात हो जाती है। घटनाओं का हर कोण से अवलोकन जरूरी होता है। इससे पहले कि विद्यार्थी नकारात्मक ऊर्जा के साथ गलत दिशा और सोच की ओर अग्रसर हो जाएं, बेहतर है कि उनका उचित मार्गदर्शन कराया जाए।
इसी तरह, अभिभावकों का यह कर्तव्य बनता है कि जिन जिगर के टुकड़ों को वे पढ़ने बाहर भेजते हैं, उनमें ऐसी स्थितियों को समझने और उनसे लड़ने की शक्ति आए। हिंसा, निराशा या आत्महत्या इसका हल नहीं है। अगर विद्यार्थियों की कोई समस्या है तो बातचीत के जरिए समाधान ढूंढ़ना चाहिए। अगर बात से भी काम नहीं चल पाए तो शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर दबाव बनाया जा सकता है। उसी तरह कॉलेज को भी परिपक्वता और न्यायपूर्ण तरीके से पेश आना चाहिए। यह बड़ी विडंबना है कि बहुत मामूली बातों के लिए कई बार विश्वविद्यालयों के अधिकारी ऐसा रुख अख्तियार करते हैं कि इसके असर से कोई छात्र हताश हो जा सकता है। आखिर विश्वविद्यालय तक पहुंचने वाला हर छात्र मजबूत पृष्ठभूमि से ही हो, जरूरी नहीं है। कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो भयानक अभावों से जूझ कर वहां पहुंचे होते हैं। उनके सपने और भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए। शिक्षण संस्थानों का काम सपने पैदा करना है, सपनों को खत्म करना या उसकी हत्या करना नहीं।