एकता कानूनगो बक्षी
जीवन से जुड़ी बहुत सारी चुनौतियों के बीच वर्तमान स्थितियों में खुद के अस्तित्व को ठीक से बनाए रख पाना भी एक समस्या होती है, जिसे लगभग हर व्यक्ति कम ज्यादा हर पल महसूस करता है। किताबों में कई जगह पढ़ा है, कई बार याद दिलवाया गया है कि ईश्वर से प्रार्थना करते समय भी हमें केवल आज के लिए सुख की मांग करनी चाहिए। यानी आज की रोटी उपलब्ध हो जाए, आज का दिन बिना किसी दुख और परेशानी के बीत जाए। सच भी है कि क्या आज की परेशानियां, जिम्मेदारियां कम हैं कि हम भूतकाल और भविष्य का बोझ अपने ऊपर लाद कर खुद को पूरी तरह थका लें।
आज में जीना निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है। लेकिन ऐसा भी संभव नहीं है कि आज के सहज आनंद के लिए हम भविष्य की योजनाएं ही न बनाएं या बीते हुए समय से कोई सबक न लें। पर वर्तमान की जमीन पर ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है और भूतकाल के सबक भी यहीं आजमाए जाते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर भूत और भविष्य हमारे विचारों में है तो वर्तमान हमारी मेहनत और विवेक में। ऐसे में आज को खो देना हमारी सबसे बड़ी हानि कही जा सकती है।
भविष्य के सपने संजोते-संजोते अक्सर हम इतना खो जाते हैं कि यह भूल ही जाते हैं कि कुछ भी पाने के लिए आज हमें प्रयत्नशील और सक्रिय रहना जरूरी है। वहीं भूतकाल में जीते रहना भी किसी नशे से कम नहीं। दोनों ही मनोस्थितियों में डूबे रहना हमें निष्क्रिय और अवसादग्रस्त बना सकता है। इससे बचने के लिए शायद हमें वर्तमान को पूरा मान देने की बहुत जरूरत होगी।
हालांकि यह इतना आसान नहीं है कि हम पूरी तरह वर्तमान पर केंद्रित हो जाएं। स्वाभाविक रूप से मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसका जीवन कई प्रत्यक्ष और परोक्ष सूत्रों से संचालित होता है। जीवन को प्रभावित करने वाले इन्हीं सब घटकों, सूत्रों के बीच खुशियों की चाबी की तलाश में जीवन को सही अर्थों में समझने के लिए हमें बहुत कुछ सीखना जरूरी है। यह एक कला है, जिसे खुद ही सीखना पड़ता है। अन्यथा अदृश्य, काल्पनिक समय चक्र में किसी भटके हुए अंतरिक्ष यान की तरह बस परिक्रमा ही करते रहेंगे।
वर्तमान में बने रहने की कला को सीखने के लिए हमें वापस लौटना होगा अपने बचपन में, जब हमारे पास प्राकृतिक रूप से एकाग्र होने का अद्भुत हुनर होता था। याद किया जा सकता है कि कैसे हम एकटक चीजों और दृश्यों को निहारते रहते थे। पढ़ते-खेलते हुए हम इस कदर एकाग्रचित्त हो जाते थे कि आसपास का परिवेश, हर चीज हमारे लिए लुप्त-सी हो जाती थी। एकाग्रचित हो पाने की कला में विशिष्ट होने से ही हम कई बातें बहुत जल्दी सीख जाते थे। बचपन में भी अगर हम बीते और आने वाले कल का बोझ ढोते रहते तो आज इस मुकाम पर पहुंच पाना हमारे लिए संभव नहीं होता।
खुद को वर्तमान में बनाए रखने के लिए सबसे पहले हमें उन विचारों, परिस्थितियों से खुद को थोड़ा दूर रखना होगा जो हमें अपने लक्ष्य से विचलित करते हों। नई तकनीक और संचार साधनों से जुड़े कई फायदों के साथ एक बड़ा नुकसान इससे हमारी निजता के हनन का भी है। एक समय मे कई सारी अच्छी बातों के साथ कई निरर्थक बातें भी हमारे मन-मस्तिष्क के भीतर पहुंचती रहती हैं, जो हमें अधीर भी करती हैं, कभी-कभी क्रोधित भी।
इस तरह बिना कुछ किए भी हमारी ऊर्जा और समय, दोनों ही खर्च हो जाते हैं। तकनीक का विवेकपूर्ण उपयोग हमारे वर्तमान को सार्थकता दे सकता है। कोशिश यह होनी चाहिए कि अपने विचारों को भी हम जरूरी काम से जोड़ सकें। शारीरिक-मानसिक रूप से पूरी तरह से हम वर्तमान में उपस्थित रहें। यह प्रयास केवल काम पर ही लागू करने तक सीमित नहीं होना चाहिए।
इसे विस्तारित करके अपनी आम दिनचर्या में भी लागू करना चाहिए। जैसे भोजन करते समय हमारा पूरा ध्यान खाने के रंग, स्वाद के साथ किस तरह वह भोजन हमें पोषित और संतुष्ट कर रहा है, इस पर केंद्रित होना चाहिए। किसी से बातचीत करते समय भी हमें पूरी तरह वहां उपस्थित होना चाहिए। ऐसे में जो भी संवाद होगा, अनुभव मिलेगा, वह बहुत प्रभावी तो रहेगा ही, हम जीवन में अधिक संतुष्ट और खुश भी रहेंगे।
समय ही सबसे बड़ी पूंजी है, जो हर दिन कम होती जा रही है। उसका सार्थक दोहन करना बेहद जरूरी है। आज मैं एक पौधा लगा रही हूं, मुलायम काली मिट्टी से मेरे हाथ सने हैं, समर्पित भाव से मैं रोज उसे पानी, खाद देती रहूंगी, हर दिन भीतर उमंग, उत्साह महसूस करती रहूंगी। चिंता नहीं है कि कल फूल खिलेगा या नहीं। मुझे मिलेगा या नहीं। पर इतना अवश्य है कि इस तरह करते, सोचते हुए मेरे भीतर रोज एक नया फूल खिल जाता है, जो मेरे वर्तमान को महका जाता है।
