चौराहों पर लाल बत्ती होने पर वह छोटा लड़का सड़क पर कलाबाजियां खाता है। एक छोटे-से लोहे के छल्ले से अपना शरीर निकाल लेता है। पास में खड़ा शायद उसका बड़ा भाई मंजीरा जैसा कोई वाद्य बजाता है और मां गले में ढोलक डाल कर उसे बजाती है। यह दृश्य आम है। यही इनकी गुजर-बसर का जरिया है। ये लोग राजस्थान से आते हैं। अब पेट भरने के लिए सड़कों पर अपना करतब दिखाते हैं।
इसी तरह कठपुतली वाले हैं। वे सड़कों पर तो कठपुतली का तमाशा दिखा नहीं सकते, इसलिए हाट बाजार में कहीं-कहीं दो-चार कठपुतलियों के साथ बैठ कर बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते दिखते हैं। कभी कठपुतली का तमाशा मनोरंजन का साधन था। शाम को पार्कों, स्कूलों, हाट बाजारों में कठपुतलियों का तमाशा होता था।
इसके माध्यम से कठपुतलियों का खेल दिखाने वाले लोग कई तरह की कहानियां बताया करते थे। समय बदला, मोबाइल, कंप्यूटर, फिल्म में रुचि बढ़ी और ये मनोरंजन के पुराने साधन पीछे छूट गए। और साथ ही इस सबके जरिए अपना जीवन चलाने वालों पर भी मुश्किल आई। ऐसी कई जनजातियां हैं जो फिलहाल मुसीबत के दौर से गुजर रहे हैं।
बीड़ी बनाने वाले तेंदू पत्ते का प्रयोग करते हैं। इस पत्ते को तोड़ने के विरोध में भी एक आंदोलन है, जिनसे इनकी जीविका खतरे में पड़ गई है। विकास और पर्यावरण प्रेम के सवालों ने कई जनजातियों के सामने आज संकट खड़ा कर दिया है। जबकि सच यह है कि पर्यावरण से प्रेम करने और उसे बचाने के मामले में दुनिया का कोई भी समाज जनजातियों से अपनी तुलना नहीं कर सकता। दूसरी ओर, जंगल कट रहे हैं, सड़कें बन रही हैं, खनिज निकाला जा रहा है और इनको अपनी जगह से खदेड़ दिया जा रहा है। ये लोग हताश होकर इधर-उधर भटकने के लिए विवश हो जाते हैं। इनके लिए सोचा जाना आवश्यक है।
ऐतिहासिक धरोहर, कॉटेज उद्योग, इंपोरियम जैसी जगहों पर जहां विदेशी ग्राहक आते हैं, वहां ये कठपुतली वाले अपने तमाशा दिखाते दिख जाते हैं। विदेशी इन्हें बड़ी उत्सुकता से देखते हैं और इसका आनंद उठाते हैं। उनके लिए यह एक अलग और हट कर मनोरंजन है। इसी तरह कलाबाजी करने वाले लोगों को भी ऐसी जगहों पर प्रदर्शन करते देखा है, जिसे विदेशी बड़ी उत्सुकता से देखते हैं और उन्हें अच्छा लगता है।
आज भी हुनर बाजार लगते हैं। दिल्ली हाट जैसी जगहों पर लोग देश भर में अपने बनाए उत्पाद लेकर आते हैं। इन उत्पादों को लेने वालों की भीड़ साधारण लोगों से थोड़ी अलग होती है। ऐसी ही जगहों पर इन लोगों के लिए कठपुतली का तमाशा, नट की कलाबाजियों का प्रदर्शन किया जा सकता है, ताकि ये कलाएं जीवित बच सकें।
इनके साथ एक पूरी संस्कृति जुड़ी है। कठपुतली के साथ कठपुतलियों का, अलग-अलग वेषभूषाओं में उनको सजाया जाना, अलग-अलग मुद्राओं में उनकी प्रस्तुति आदि देखने लायक होती हैं। प्रस्तुति के लिए जिन अलग-अलग कथाओं का चयन किया जाता है, उनको श्रोताओं के अनुकूल ढाला जाता है। ये कथाएं पौराणिक भी होती है, इनमें किसी राजा-रानी या फिर परियों की कहानियां भी होती हैं।
इनमें बच्चों की रुचि हो सकती है। शाम के खाली वक्त में किसी पार्क आदि में अगर इन कलाओं का प्रदर्शन हो तो बच्चे, बुजुर्ग और दूसरे दर्शक भी देख सकते हैं। इस ओर ध्यान जाना चाहिए। दिल्ली हाट जैसी जगहों पर इनके लिए स्थान निश्चित किया जा सकता है। इंपोरियम से बाहर भी कुछ इंतजाम हो सकता है। इनको अवसर मिलेगा तो ये कलाएं जीवित रहेगी और जनजातियां भी लाभान्वित होंगीं। छोटे शहरों और कस्बों में इनकी प्रस्तुतियां आज भी देखने को मिल जाती हैं और लोग दिलचस्पी लेकर देखते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे समाज में कला-प्रेम की जमीन काफी मजबूत है, लेकिन साधारण लोगों का यह कला-प्रेम अनदेखा रह जाता है।
यह भी जरूरी है कि इन जनजातियों को मूख्यधारा के साथ जोड़ा जाए। इनकी शिक्षा की व्यवस्था हो, ताकि अगली पीढ़ी के सामने दूसरे विकल्प हो। अभी हम विकास की बातें करते हैं, पर यह विकास जनजातियों तक नहीं पहुंचा है! इन वर्गों से आने वाले लोग अभी भी काफी पिछड़ेपन में जी रहे हैं। उनका जो था, वह इनसे छीन लिया गया और जो उन्हें विकास से मिलना चाहिए था, वह उन्हें नहीं मिला। स्वतंत्र रूप से कुछ सस्थाएं काम करती हैं और अब उन तक पहुंचने का प्रयास कर रही हैं, ताकि उन्हें शिक्षा के माध्यम से मूख्यधारा के साथ जोड़ा जा सके।
लेकिन इसके लिए सरकारों को सामने आना होगा, ताकि नीतिगत रूप से व्यवस्थित उपायों द्वारा उन्हें शिक्षा और दूसरे कार्यों में प्रशिक्षित करके उनका हक दिलाया जा सके। कथित विकास ने इनकी जमीन पर से इनका हक छीन लिया है। जंगल और प्राकृतिक संसाधनों इनका जीवन निर्भर था, वे इनसे छीने गए हैं। ऐसे में एक लोकतांत्रिक समाज और व्यवस्था की जिम्मेदारी है कि वह इनकी जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाए और साथ ही इनकी कलाओं को भी सुरक्षित रखा जाए।