वह अपने नियत दिन गली में आवाज लगाता और गली की स्त्रियां अपने पीतल के बर्तन लेकर उसके पास चल देतीं। वह एक साफ और खुली जगह पर अपनी पोटली निकालता, जिसमें उसके औजार रखे होते। हम बच्चे उसके पास बैठे उसे बर्तन कलई करते देखते और अचंभित होते।
कभी वह अपने विशेष चूल्हे में बर्तन को तपाता तो कभी उस गर्म बर्तन को ठंडे पानी में डाल देता और रगड़ कर चमचमाता बर्तन बाहर निकालता। वह सभी स्त्रियों को ‘बीबी’ कह कर संबोधित करता तो हम बच्चे हंसते। फिर एक बार मां ने बताया कि ये ‘बीबी’ है, ‘बीवी’ नहीं। ‘बीबी’ किसी स्त्री के लिए आदरसूचक शब्द है, जबकि ‘बीवी’ शब्द पत्नी के लिए इस्तेमाल होता है।
इसी तरह, जब भी किसी दुकान में पैकेट में बंद आटे के वे लहर वाले बिस्कुट देखती हूं तो याद आता है कि मां की अंगुली पकड़ कर बेकरी जाती थी। मां आटा, चीनी और अन्य सामान बेकरी वाले को देकर वहीं बैठ कर बिस्कुट बनवाती थीं और मैं चकित होकर बेकरी वाले की भट्टी देखती, जिसमें वह एक चौकोर थाली जैसे बर्तन में बिस्कुट रख कर पकाता था। मैं सोचती कि अंदर भट्टी में कोई बाबा बैठा है जो बिस्कुट सेंक कर बाहर भेज देता है। कभी मैं दीवार में लगी वह चीनी पीसने वाली मशीन देखती, जिसमें कारीगर चीनी डाल कर उसका हैंडल घुमाता और चीनी पाउडर बन कर बाहर निकलती जाती।
टीन के वैसे कनस्तर भी बहुत लोगों को याद होंगे, जो रसोई में रखे होते थे और जिनमें राशन रखा होता था। ऐसे कनस्तर भी दो तरह के होते थे। छोटे कनस्तर को ‘अद्धा’ कहा जाता था। कनस्तर पर ढक्कन लगाने वाला भी गली में आवाज लगाता घूमता था।
बचपन की कई ऐसी यादें हैं, जिनसे आज हम सब बिछुड़ गए हैं। मसलन, गन्ने की गंडेरी वाला, इमली, कटारे और लाल बेर बेचने वाला। ‘बुड्ढी के बाल’ वाला अपने पास बहुत से सांचे रखता था। वे सांचे प्लास्टिक के खिलौनों के बाहरी भाग से बने होते, जैसे गुड़िया, घोड़ा या अन्य कोई खिलौना।
वह हमारे सामने ‘बुड्ढी के बाल’ बनाता और हमारे मनचाहे सांचे में उन्हें ढाल कर हमें देता। ऐसे ही एक रुई धुनने वाला भी गली में आता था। मुझे आज भी याद है कि वह आवाज नहीं लगाता था, बल्कि अपने रुई धुनने वाले विशेष उपकरण को बजाता रहता। उसके उपकरण की वह आवाज ही उसकी पहचान थी। गरमी के दिनों में अपनी रेहड़ी पर रंग-बिरंगे पानी की बोतलें सजाए चुस्की वाला भी याद है।
कुछ समय पहले जब दिल्ली के इंडिया गेट घूमने गई तो वहां बाइस्कोप वाले को देखा। बचपन में हमारे घर के बाहर रोज एक बाइस्कोप वाला आया करता था। उसके बाइस्कोप में उस समय के ताजा गाने बजते और साथ में मशहूर लोगों और जगहों के चित्र घूमते चलते।
हम सब चार आने किराए में बाइस्कोप का ढक्कन खोल कर उसकी खिड़की से झांक कर रंग-बिरंगी दुनिया की सैर करते। झंडे पर रंग-बिरंगी च्युइंगम लपेट कर देने वाला, चूरन वाला, बान की चारपाई बनाने वाला, जलजीरे वाला, चाकू-छुरी की धार तेज करने वाला। इनमें से कई लोग तो अब गुजरे जमाने की बातें हो गए हैं। ‘बुड्ढी के बाल’ अब ‘कैंडी शॉप’ के नाम से बड़े-बड़े मॉल में महंगे दामों में मिलते हैं।
सब कुछ बदल-सा गया है। हमने रेहड़ी-पटरी से रसगुल्ले, दूध वाली आइसक्रीम और कुल्फी खाई है, लेकिन अपने बच्चों को हम ये सब सामान ब्रांडेड ही खिलाते हैं। बचपन में नल का बिना फिल्टर किया पानी पीते थे, पर बीमार नहीं पड़ते थे। आज बिना फिल्टर किया पानी न तो खुद पीते हैं, न ही अपनों को पीने देते हैं। कितनी सब चीजें समय के साथ खत्म हो गर्इं या बदल गई हैं। पीने के पानी की स्लेटी रंग की ट्रॉली और उस पर लगी पानी की मशीन।
उसमें से तेजी से पानी निकलते देखना बहुत मजेदार था। कई बार तो मां से पानी पीने की जिद इसलिए करती कि मुझे वह पानी की मशीन चलते हुए देखनी होती। पुराने कपड़े देकर मोलभाव करके नया बर्तन लेकर खुश हो जाना। ये छोटी-छोटी खुशियां जाने कहां खो गर्इं। बच्चों के नाक-कान छिदवाने डॉक्टर के पास नहीं जाते थे।
गली में अटैची लिए एक बच्चों के कान-नाक छेदने वाला भी आता था। ये काम सब लोग उसी से करवाते थे। बस में दिलचस्प बातें बना कर छोटे-छोटे सामान बेचने वाले लोग। झाबे में जामुन, फालसे, गोलगप्पे या शकरकंदी बेचते लोग जाने कहां चले गए। यह सब अब हम अस्सी-नब्बे के दशक में बचपन गुजारने वाले बच्चों की यादों में ही हैं। नई पीढ़ी के पास तो अब हर चीज के लिए महंगे मॉल और मोबाइल हैं।