हमारे परिचय-वृत्त यानी ‘सीवी’ में हमारी अकादमिक विफलताओं का उल्लेख नहीं होता है, लेकिन प्रिंसटोन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जोहंस हॉउसफेर मनोविज्ञान और लोक मामलों के विद्वान होने के अलावा अपने प्रोफाइल में विफलताओं को दर्ज करने के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने अपनी असफलता के दस्तावेज को 2016 में ऑनलाइन कर दिया था और देखते-देखते वह लाखों लोगों तक पहुंच गया। उन्होंने खुद प्रिंसटोन विश्वविद्यालय पहुंचने तक की अपनी यात्रा में नौकरी में चयन न होने, छात्रवृत्ति में चयनित न होने, शोध पत्र बिना छपे लौटा दिए जाने और डिग्री-पीएचडी पाठ्यक्रम में नामांकन न होने जैसी असफलताओं का उल्लेख किया है।
अब सीबीएसई और राज्यों के दसवीं और बारहवीं कक्षा के परीक्षा-परिणाम आ चुके हैं। लेकिन वे माता-पिता और बच्चे सामाजिक दबाव झेल रहे होंगे, जिनके नंबर अपेक्षया कम आए होंगे या जो असफल करार दिए गए होंगे। क्या किसी बच्चे की स्कूली परीक्षा में असफलता उसकी खुद की असफलता होती है? क्या इस असफलता में उस स्कूल, उनके अध्यापकों, शिक्षा-व्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की भागीदारी नहीं होती है? शिक्षा शास्त्र और मनोविज्ञान इस बात की वकालत करते हैं कि हर एक बच्चा या व्यक्ति बुनियादी रूप से एक दूसरे से भिन्न होता है। फिर एक जैसी दक्षता विकसित करने और उसे प्रमाण-पत्र जारी करने की पद्धति कहां तक उचित है?
स्कूल समाज का एक छोटा रूप होता है। जैसे समाज में अलग-अलग दक्षता के लोगों की भूमिका होती है, वैसे ही स्कूल में भी अलग-अलग हुनर और प्रतिभा के विद्यार्थी होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक सौ विद्यार्थियों की कक्षा में केवल बीस फीसद अकादमिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करने वाले होते हैं। अस्सी प्रतिशत विद्यार्थी स्कूल में अकादमिक रूप से औसत होते हैं। लेकिन उनकी रुचि जीवन के विभिन्न आयाम जैसे खेल, संगीत, साहित्य, कला, अन्वेषण, रचनात्मकता आदि में ज्यादा हो सकती है और सार्वजनिक जीवन में वे अपनी पहचान बना लेते हैं। जिन लोगों ने फिल्म या खेल में नाम कमाया है, उनमें से कितनों ने पांच सौ में से चार सौ निन्यानबे अंक हासिल किए हैं? आप अपने आसपास देखिए। स्कूल से बाहर आकर कितनों ने अपनी मेहनत से स्कूल में बनी औसत विद्यार्थी की धारणा को पलट दिया है!
बोर्ड की परीक्षा में जिन विद्यार्थियों के नंबर नब्बे प्रतिशत से अधिक आए, उनमें से कुछ के माता-पिता उनके अंकपत्र फेसबुक पर साझा कर रहे हैं। निश्चित रूप से ऐसे बच्चे प्रशंसा के पात्र हैं। मगर कहीं ऐसा तो नहीं कि जाने-अनजाने मां-बाप अपने बच्चे की उपलब्धियों को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ कर देख रहे हैं? परीक्षा में पाए गए नंबरों का उत्सव जीवन के हर मुकाम पर आपको खुशी दे और आप हमेशा अव्वल ही रहें, ऐसा जरूरी नहीं है! सबके जीवन में उतार-चढ़ाव आता रहता है और अगर मां-बाप खुद को देखें तो कितनी बार उन्हें ही असफलता का सामना करना पड़ा है। असफलता का यह अहसास स्कूल-कॉलेज, नौकरी से लेकर सार्वजनिक स्थलों तक पर होता रहता है। अक्सर स्कूल में जब कोई समूह नृत्य या समूह गायन होता है तो हर अभिभावक की इच्छा होती है कि उनका बच्चा सबसे अगली पंक्ति में हो, तो क्या बीस-तीस में से सभी बच्चे अगली पंक्ति में हो सकते हैं?
दुनिया में होमवर्क को लेकर शिक्षाविदों में एक राय नहीं है। अधिकतर विद्वान इसके बढ़ते बोझ से चिंतित हैं, क्योंकि बच्चों के पास परिवार और सामाजिक मेल-मिलाप के लिए समय नहीं है। जबकि नंबरों की अंधाधुंध दौड़ ने किंडरगार्टन से ही गृहकार्य और कक्षा एक से ट्यूशन की शुरुआत करा दी है। चार-पांच साल के बच्चे दो से तीन घंटे का होमवर्क कर रहे हैं। वह स्कूल अच्छा माना जा रहा है जो तीन-चार साल की उम्र से लिखने की शुरुआत करा दे! जबकि लिखने की शुरुआत छह-सात साल की उम्र से हो तो बेहतर होता है। आज छठी कक्षा से ही बच्चे आइआइटी की कोचिंग करने लगे हैं। बच्चों में प्रथम आने की होड़ और असफल होने पर सामाजिक उपेक्षा का डर उन्हें आत्महत्या की ओर भी उन्मुख कर सकता है। हम अपनी महत्त्वाकांक्षा के नशे में भूल गए हैं कि बच्चे आखिर बच्चे हैं और उन्हें खेलने का भी समय चाहिए। परीक्षा की तैयारी के कारण बहुत सारी बातें स्थगित होती जा रही हैं। बच्चों में बढ़ता तनाव प्रतियोगी परीक्षा का दबाव, अकादमिक सफलता पर जोर अध्यापकों को भी असहज बना रहा है। अध्यापकों पर भी बेहतर परीक्षा परिणाम देने का दबाव स्कूल प्रशासन की ओर से रहता है। तो रास्ता क्या है?
धीरे-धीरे कुछ बच्चे इस भागमभाग वाली शिक्षा-पद्धति से बाहर आ रहे हैं, कुछ परीक्षा के डर से अपराध की ओर भी जा रहे हैं। कुछ सचेत अभिभावक ओपन स्कूल और होम स्कूलिंग को अपना रहे हैं। लेकिन स्कूली सर्टिफिकेट की अनिवार्यता अभी भी स्कूलों की मौजूदगी का आधार है, लेकिन स्कूल में असफलता-सफलता का ठप्पा जीवन में कामयाबी की गरंटी नहीं होता है। केवल अकादमिक दक्षता जीवन में आपको एक बेहतर इंसान नहीं बनाती है। इसलिए प्रोफेसर जोहंस की यह बात तार्किक लगती है कि सफलता का रास्ता असफलताओं की पगडंडी से होकर जाता है।
