वंदना यादव
यह अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों की बात है। गांव में बिताए दिनों की याद है कि सिंचाई विभाग के लोग ट्रकनुमा गाड़ी में लोहे के लंबे-लंबे पाइप लेकर आते थे। नियत स्थान पर पहुंच कर सरकारी कर्मचारी गाड़ी से उतर कर अपनी-अपनी जिम्मेदारी संभाल लेते। अफसरनुमा लोग जमीन पर कुछ देखने-समझने के बाद, अपने विभागीय कागजात देखते और फिर साथ आए कर्मचारियों को कुछ समझाते। कर्मचारी गड््ढा खोदने लगते। थोड़ी जमीन खोदने के बाद मशीन की मदद से पाइप को जमीन में गाड़ देते।
इस तरह वे पहले से तय जमीन के अलग-अलग हिस्सों में पानी की तलाश करते थे। फिर शाम तक सरकारी दस्ता, पानी न मिलने की सूरत में, अधिकतर पाइपों को गड््ढों में ही जंग लग कर गल जाने के लिए छोड़ कर आगे बढ़ जाते थे। बेहतर नतीजे देने के दबाव में सरकारी कर्मचारी खूब मेहनत करते थे। नई जानकारियों के आधार पर पूरा महकमा आए दिन पानी की खोज में जहां-तहां जुटा रहता। मगर खूब मेहनत के बावजूद उन्हें मनचाहा परिणाम नहीं मिलता था। निराश होकर वे लौट जाते थे।
उन्हीं दिनों कुछ ऐसा हुआ कि कैर की बणी (छोटे-छोटे हरे रंग के मटर के आकार के सख्त दाने, जिनका अचार बनता है, उनका जंगल) की ओर वाले रास्ते में पानी की किल्लत के चलते कुआं खोदने की बात शुरू हुई। चूंकि कैर की बणी सूखे इलाकों में होती है, इसीलिए वहां पानी की तलाश से पहले गांव में विचार-विमर्श शुरू हुआ। उन्हीं दिनों मेरे दादाजी, सेना की नौकरी से सेवानिवृत्त होकर गांव लौटे थे।
उन्हें जब इस बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने अपनी सीख-समझ के आधार पर जो जमीन चिह्नित की, वहां पानी मिल गया। इसके बाद जब-जब गांव और आसपास के इलाकों में पानी की खोज होती, उनकी बताई जगह पर पानी मिल जाता था। अपनी खोज का आधार उन्होंने बताया था कि जिस जगह जमीन के ऊपर दीमक की ऊंची-ऊंची बांबियां होंगी, वहां धरती के अंदर ठंडा-मीठा पानी होगा। यह हमारे बुजुर्गों का पीढ़ियों से चला आ रहा ज्ञान का वह खजाना है, जो बिना किसी लिखित दस्तावेज के, एक से दूसरी और तीसरी पीढ़ी तक पहुंच रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि वैज्ञानिक आविष्कारों ने इंसानी जीवन को आसान बनाया है, मगर सोचने लायक बात यह है कि विकास की अंधी दौड़ में हमने अपनी उन प्राचीन पद्धतियों को कहां गुम कर दिया, जो हमें न सिर्फ प्रकृति से जोड़े रखतीं, बल्कि तात्कालिक इंतजाम के बजाय परेशानियों के स्थायी हल भी देती थीं।
इसी तरह प्राकृतिक तरीके से बने घरों से न के बराबर कार्बन उत्सर्जन की बात होती है। इस संदर्भ में जब गांव-देहात के आधुनिक मकानों या कस्बों और महानगरों की बहुमंजिला इमारतों को देख कर मन घबराने लगता है, तब किसी ओर से मिलने वाली एकाध खबर मन के भीतर लहलहाती हरियाली के बचने की उम्मीद जगा जाती है। शहरों के घर और महानगरीय इमारतों में ग्रीनहाउस का विकल्प तलाश लिया गया है। अब हमें सिर्फ इसके लोकप्रिय होने तक का सफर तय करना है।
जब राजस्थान में रहने वाले अपने एक रिश्तेदार से खेती योग्य पानी के लिए किए जाने वाले उपायों के बारे में जानना चाहा, तो जवाब सुन कर हैरान रह गई। उन्होंने बताया कि खेतों में तालाब बनाना बहुत खर्चीला है। तालाब में बिछाने के प्लास्टिक की उम्र कुछ वर्षों की ही होती है। फिर मुझे अपना बचपन याद आ गया, जब हम स्कूल की छुट्टियों में धोरों की धरती, बीकानेर जाया करते थे। एक बार विशाल आकार का तालाब देख कर मैंने पूछा था, ‘पानी तालाब में कैसे रुकता है?’ नानाजी ने बताया था कि खुदाई के बाद तालाब में जितना मर्जी पानी भर दो, धरती सारा पानी पी जाती है।
पानी को धरती में जाने से रोकने का प्राचीन और पारंपरिक तरीका था कि जानवरों के गोबर के साथ चूने का घोल तैयार कर तालाब में पानी के साथ छोड़ दिया जाए। यह प्रक्रिया कुछ समय तक लगातार करनी होती है। जैसे-जैसे चूना और गोबर तालाब की तली और दीवारों पर बैठ जाता है, तालाब में पानी रुकने लगता है। यही प्रक्रिया दोहराते रहने से तालाब बचे रहते हैं और तालाबों पर आश्रित खेतों, पशु-पक्षियों और वृक्षों का जीवन भी बचा रहता है।
सवाल है कि जब हमारी प्राचीन पद्धतियां इतनी वैज्ञानिक और कारगर थीं, तब उन्हें अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने या लोकप्रिय बनाने में हमसे चूक कहां हुई? हमें अपने तालाबों को पुनर्जीवित करने के लिए इसी तरह की प्राचीन वैज्ञानिक पद्धति को अपनाना होगा। अब समय आ गया है कि हम एक बार फिर से गांवों का रुख करें। जिन बुजुर्गों को अवांछित समझ कर अकेला रहने को छोड़ दिया है, उनकी सुध लें। उनसे जीवन की कुछ नायाब सीख लें और अपनी प्राचीन वैज्ञानिक पद्धतियों को एक बार फिर से पुनर्जीवित करें।