मुझे झूठ से गहरी सहानुभूति है। बेचारा झूठ। क्या जिंदगी पाई है। झूठ से काम सब लेते हैं, पर झूठ के काम कोई नहीं आता। झूठ सबकी हिमायत में तत्पर, झूठ की हिमायत कोई नहीं करता। संसार का सबसे बड़ा झुट्ठा भी झूठ की भर्त्सना करता मिल जाएगा। असल में झूठ की भर्त्सना करना हमारे डीएनए में शामिल है। बचपन में खेल-खेल में ही झूठ की भर्त्सना करना सीख जाते हैं। झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे सांप है, वही तुम्हारा बाप है।
आगे बढ़ते ही कबीर दास मिल जाते हैं- सांच बराबर तप नहीं / झूठ बराबर पाप / जाके हिरदय सांच है / ताके हिरदय आप। कभी-कभी सोचता हूं, ईश्वर तो सबको बनाने वाला है, सबका निर्माता है। अगर उसने सच बनाया है तो झूठ भी तो उसी का बनाया हुआ है। अपने सिरजे हुए से ऐसा भेदभाव।
आखिर झूठ और सच दोनों का जन्म भाषा के गर्भ से होता है। मेरे एक मित्र कहा करते थे कि भाषा भावों और विचारों को व्यक्त करने का माध्यम है।
यह भाषा की अधूरी परिभाषा है। सही बात यह है कि भाषा भावों और विचारों को छुपाने का माध्यम है। यानी भाषा के बिना झूठ संभव ही नहीं है। भाषा पर जिसका जितना अधिकार होता है वह उतने ही अधिकार से झूठ बोल सकता है। इसीलिए जितने बड़े भाषणवीर होते हैं प्राय: उतने ही बड़े झूठवीर होते हैं। सच पूछिए, तो सच और झूठ का संबंध चोलीदामन का संबंध होता है। कचहरियों में पवित्र किताबों पर हाथ रख कर कसम खाने के बाद झूठी गवाही देने का काम भाषा में ही संभव होता है, जैसे कि पद और गोपनीयता की शपथ लेने के साथ ही झूठ का कारोबार शुरू कर देते हैं।
सच की बुनियाद पर ही झूठ पलता है। हमारे एक गुरु जी इस बात को युधिष्ठिर के हवाले से समझाते थे। वे कहते थे कि एक निर्णायक झूठ बोलने के लिए युधिष्ठिर जीवन भर सच बोलने का रियाज करते रहे। मेरे एक बुजुर्ग साथी कहा करते थे- झूठ और सच दोनों भाई हैं, एक से काम न चले, दूसरे से चलाइए। लेकिन समय बदल गया है। सत्य किसी काम का नहीं है। उसे सिर्फ दीवार पर साइनबोर्ड की तरह लटकाया जा सकता है। शौक से लटकाइए, पर झूठ को शुक्रिया तो अदा करते रहिए।
लेकिन नहीं! नहीं करेंगे। लोकभाषा हो या देवभाषा, सब झूठ के विरोध में खड़े हैं। देवभाषा का पहला पाठ ही शुरू होता है- सत्यं वद् धर्मम् चर। पाठ पढ़ कर हम सत्यं वदें या न वदें, झूठ की भर्त्सना करना सीख जाते हैं, जैसे कि धर्म को चरना। धर्म को वैसे ही चरने लगते हैं जैसे कि सांड खेत चरता है। कहते हैं कि सांड जिस खेत में लार चुआ देता है, उसे चर कर तबाह कर देता है। धर्म को चरना कोई गुनाह नहीं, यह तो पहले पाठ को ठीक से आचरण में उतारना है। लेकिन बात तो झूठ की हो रही थी, इसमें धर्म झुट्ठे आ गया।
झूठ की स्थिति उस प्रेमी या प्रेमिका जैसी होती है, जिससे मिलते सब हैं, पर जाहिर कोई नहीं होने देता। प्रेम करता हुआ आदमी कहीं पर हो, मन प्रिय में लगा रहता है। पहला मौका मिलते ही वह प्रिय के पास पहुंच जाता है। छूटल घोड़ भुसउले ठाढ़। अवसर पाते ही घोड़ा खाने की जगह पर हाजिर। फर्क इतना है कि घोड़ा जो काम डंके की चोट पर करता है, आदमी चुपके-चुपके करता है।
दिन-रात झूठ जीते हैं, झूठ बरतते हैं, झूठ का खाते हैं, और गाते सच की हैं। अरे भाई! खाते समय शर्म नहीं आई, गाते समय आ रही है। या तो झूठ का खाइए मत और अगर खा रहे हैं तो कम से कम उसका गाइए तो। अगर झूठ बोलना पाप है तो कृतघ्नता उससे भी बड़ा पाप है। डबल पापी बनने से तो बेहतर है, एक ही पाप करना।
खुल्लम-खुल्ला प्यार कर सकते हैं, तो क्या खुल्लम-खुल्ला झूठ नहीं बोल सकते। खुल्लम-खुल्ला झूठ बोलने से बरकत मिलती है, ओहदा मिलता है, इनाम इकराम मिलता है। यह आदमी नाम का जीव भी गजब है। उसे इनाम इकराम सब चाहिए। पद भी चाहिए, प्रतिष्ठा भी चाहिए। नाम भी चाहिए, यश भी चाहिए। झूठ की शरण में जाओ तो सब मिल जाता है। पर झूठ को धन्यवाद देते नानी मरती है। कम से कम उसे धन्यवाद तो दे दो भाई।
बेचारा झूठ न तो घूस मांगता है न पार्टी के लिए चंदा। उसे बस थोड़ी-सी सहानुभूति चाहिए, थोड़ा-सा ‘रिकग्निशन’ चाहिए। पुराना गाना है न- पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही। कैसा लगता होगा उसे? काम ले लेते हैं और काम निकल जाने पर दुत्कारते रहते हैं। झूठ को दुत्कारिए मत। बेचारे झूठ को नकारने के लिए नए-नए झूठ मत गढ़िए। आदमी होकर इतने एहसान फरामोश न बनिए। याद रखिए, सच की हिमायत से वनवास मिल सकता है, देश-निकाला हो सकता है, गद्दी नहीं मिलेगी।