अनिता वर्मा
प्रेम एक कोमल अहसास है, जो समस्त प्राणियों को आत्मा के स्तर पर जोड़ता है। इसका अहसास मानव से लेकर पशु-पक्षी तक को होता है। दया, सद्भाव, परोपकार, सहयोग इन सबका मूल प्रेम भाव ही तो है। प्रेम की पहली शर्त अहंकार का चोला उतार कर फेंकना है। जब मानव मन से अहं भाव दूर हो जाता है तो अंतरात्मा तक प्रेम की रसधार प्रवाहित होने लगती है। जीवन के समस्त व्यापार प्रेम के ही तो हैं, जो एक-दूसरे को जोड़ते हैं। प्रेम का विस्तार कितनी गहराई और ताकत रखता है, यह तो प्रेम का सुखद अहसास कर चुका व्यक्ति ही जान सकता है।
चाहे प्रेम का स्वरूप कुछ भी हो, वह भीतर तक मन को झंकृत करता हुआ भिगो देता है। इसी प्रेम की डोर से बंध कर मीरां कह उठी थीं- ‘ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी…!’ गोपियां इसी भाव में डूब कर कुंज गलीन में कान्हा को ढूंढ़ती थीं। प्रेम का विस्तार और मूल संवेदन संपूर्ण संसार में एक-सा ही है। प्रेम की अपनी विशिष्ट भाषा होती है, जो प्रत्येक प्राणी समझता और महसूस करता है।
प्रेम का यह रंग जब आत्मा को भिगोता है, तो अंतस में जलतरंग-सा बज उठता है। मन के असंख्य तार विविध राग-रागिनियां छेड़ देते हैं। मन उसी में डूबता-उतरता रहता है। कलुषित भाव जब तिरोहित हो जाता है तब प्रेम का सात्विक भाव मन में आ समाता है, जो अपने स्नेहिल स्पर्श से अंतर्मन को झंकृत भी करता रहता है। प्रेम को कहीं बाहर से लाया नहीं जाता, यह तो सबके भीतर स्थायी रूप से विद्यमान है। आवश्यकता है आत्मा के स्तर पर जुड़ने और इसको समझने की, जिसमें कहीं कोई नुकसान नहीं है। प्रेम अपने साथ बहुत कुछ समेटता हुआ चलता है, जहां दूर-दूर तक प्रेम रस में डूबी शहनाई की मधुर और मीठी गूंज अंतर्मन में धीरे-धीरे दस्तक देती रहती है।
प्रेम भाव अत्यंत विस्तार लिए होता है, जहां किसी प्रकार का संकुचित भाव नहीं रहता। उसमें पूर्ण समर्पण समाया रहता है। जिसने अपने मद अहं को एक ओर धर दिया है, वही प्रेम के सागर में डुबकी लगाता है। सबसे बड़ी बात, यह कहीं बिकता नहीं। सौ प्रतिशत खरा सौदा है यह। कबीर कहते हैं ‘प्रेम न बाड़ी उपजै’। यह तो प्रत्येक प्राणी के भीतर विद्यमान है। घमंड से चूर व्यक्ति इसको महसूस नहीं कर पाता। यही द्वंद्व का मूल कारण बनता है। सामाजिक संदर्भों में प्रेम की महिमा अति विशिष्ट है। घर, परिवार, समाज सबके भीतर प्रेम का सहज भाव ही सामंजस्य स्थापित करता है।
इससे घर और परिवेश में सहजता सरलता और शांति बनी रहती है। प्रेम का कोमल अहसास पशु-पक्षियों के हृदय में भी स्पंदन पैदा करता है। किसी पशु, पक्षी को नियमित आत्मीय भाव से चुग्गा डाल दीजिए, फिर देखिए कमाल। वे सब आपके इर्द-गिर्द घूमते नजर आएंगे। आत्मा से आत्मा का जुड़ाव यहां देखने योग्य है। प्रेम का जादुई स्पर्श दिलों को जोड़ता है। आत्मीयता का भाव जाग्रत करता है। मनुष्यता प्रेम भाव से परिभाषित होती है। प्रेम मनुष्यता के भाव को मजबूती प्रदान करता है। प्रेम आत्मा का विस्तार करता है, मन को स्फूर्ति और जीवंतता प्रदान करने के साथ आत्मसंतुष्टि का भाव प्रेम के साथ बना रहता है।
प्रेम का मार्ग तो अत्यंत सहज, सरल है, जिस पर सहज, सरलमना बेझिझक आगे बढ़ते जाते हैं। घनानंद कहते हैं ‘अति सूधो सनेह को मारग है, नैकु सयानप बांक नहीं’। प्रत्येक मानव के भीतर इसका अक्षय स्रोत प्रवाहित है, केवल इसमें डूबने का जतन जरूरी है। मगर आज भौतिकवादी परिवेश ने मनुष्य मनुष्य के बीच दूरियां पैदा कर दी है। मनुष्य आत्मकेंद्रित होकर भटक रहा है। सब प्रकार से सुविधा संपन्न होते हुए भी प्रेम रहित है।
यह सब मानव के तनाव, अवसाद, द्वंद्व, चिंता, पीड़ा का प्रमुख कारण है। प्रेम आत्मा के सद्भाव का विस्तार रूप कहा जा सकता है, जहां प्रत्येक प्राणी एक दूसरे के दुख-दर्द को आत्मा के स्पंदन में महसूस करते हैं। यह वह पवित्र भाव है, जो अनमोल है, जिसे खरीदा नहीं जाता। इसे तो समभाव से अपने आसपास ही हम पा सकते हैं। कबीर ने कहा- ‘प्रेम न बाड़ी उपजे/ प्रेम न हाट बिकाय/ राजा परजा जेहि रुचै/ सीस देहि ले जाय।’
इस भाव को ग्रहण करने के लिए आंतरिक चक्षु का खुला होना जरूरी है, जहां समर्पण है, त्याग है, अपनापन है। अहंकार तो दूर-दूर तक नहीं होना चाहिए। यह भाव सामाजिकता सद्भाव को विकसित करता है। प्रेम भाव को पाने का मूल मंत्र है अहंकार का त्याग। तभी किसी के हृदय में स्थान मिल सकता है। अगर हम इस प्रेम के मूल मंत्र को आत्मसात कर लें, तो सचमुच जीवन के सारे तनाव, अवसाद, द्वंद्व, वेदना, पीड़ा सब का अंत संभव है, बशर्ते हम इस भाव को संवेदना के स्तर पर, समर्पण भाव से ग्रहण करें। एक-दूसरे के दर्द को महसूस करें।
