जीवन की आचार संहिता में हमारे पुरखों ने अन्य विषयों के साथ-साथ क्षमा के अर्थ को जिस रूप में निरूपित किया था, उसमें उसकी विरासतीय महत्ता प्रबल हुआ करती थी। इसकी परिभाषा कहीं लिखित न होकर परंपराओं की पगडंडी पर अनवरत रूप से अपने आप स्वीकार्य मन:स्थिति में संचालित हुआ करती थी।जीवन का कालचक्र जब व्यक्ति के जीने की कला और तरीके में क्रमश: परिवर्तन का परिवेश लाया, अन्य मान्यताओं के साथ क्षमा याचना और क्षमा प्रदान करने के संदर्भ बदल गए हैं।
घर-गृहस्थी की व्यापक सरंचना में परिवार के सदस्यों से छोटी-मोटी गलती या भूल होना स्वाभाविक सिद्धांतों के अनुकूल माना गया था। यही चिंतन धारा सामाजिक परिधि में भी सबके लिए मान्य था। आगे चलकर गलती जब सार्वजनिक मंचों पर होने लगी तो इसके दृष्टिकोण और आयाम में अनर्थ का प्रतिकूल प्रादुर्भाव होने लगा। लोग बाग अपने-अपने अंदाज में गलती और क्षमा का विश्लेषण करने लगे।
कभी गलतियां घर-आंगन या सामाजिक चौपाल में निपटा लिए जाती थीं, क्योंकि तब पुरातन अनुशासन की कड़ी से गलती करने वाले नैतिक रूप से अधिक बंधे हुआ करते थे। प्रगति के प्रकल्पों ने गलती और अपराध की श्रेणी का अलग-अलग मापदंड जब निर्धारित किया तो अपराध की सजा न्यायशास्त्र की धाराओं द्वारा तय होने लगी।
कहा जाता है कि व्यक्ति गलतियों का पुतला है, मगर हममें अपनी गलती को परखने और समझने की बुद्धि और विवेक भी है। कई बार अनजाने में गलती हो जाया करती है तो कभी बेपरवाह बनकर भी ऐसा होता है। विवेक की यह प्राकृतिक पहचान है कि अधिकांश मनुष्य अपनी गलती के बाद चिंतन के बाद भीतर से अनुभव करता है कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। गलती की वापसी तो नहीं हो सकती, लेकिन भविष्य में इसे दोहराया नहीं जाए, इसकी सीख तो ली ही जा सकती है।
एक श्रेष्ठ व्यक्ति अपनी गलती का एहसास होते ही क्षमा मांग लेता है या किसी दूसरे से भूलवश गलती हो जाने पर उसे सहर्ष क्षमा भी कर देता है। मित्रता का रिश्ता हो या स्वजनों से संबंध, वही इन रिश्तों को अच्छी तरह निभा सकता है, जिन्हें क्षमा मांगने में झिझक न हो और क्षमा करने में कंजूसी भी न हो। हृदय से निवेदित क्षमा तरंग में पछतावा, जिम्मेदारी और उसे सुधारने के उपाय निहित हुआ करते हैं।
बुजुर्गों ने सिद्ध तौर पर कहा है कि हमें किसी की भी गलती को बहुत ही भारी मन से नहीं लेना चाहिए। यह प्रश्न वाजिब है कि अगर हम किसी को माफ नहीं करेंगे इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे। अगर उस अवसर को हम खो देते हैं या क्षमा नहीं करते हैं तो हम उसके विरुद्ध अपने मन या दिल और दिमाग में उसके प्रति पूर्वाग्रह पाल लेते हैं। हम उसकी की हुई भूल या गलती को उसके व्यक्तित्व की व्याख्या मान लेते हैं। हम यह नहीं विचार करते कि गलती करते वक्त उस व्यक्ति की क्या मनोदशा रही होगी। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि हमारी नजर दूसरे की गलती पर तीक्ष्ण हुआ करती है, जबकि अपनी गलती पर सदा परदा डालने की चेष्टा करते हैं।
दूसरी ओर, कुछ हठी प्रवृत्ति के गलती करने वाले लोग यह धारणा बना लेते हैं कि उन्होंने जो किया है, वह उनकी दृष्टि में बिल्कुल सही है। ऐसे लोग क्षमा परिधि से बहुत दूर चले जाते हैं, क्योंकि उन्हें भले-बुरे का ज्ञान नहीं होता। आज के परिदृश्य में बहुत आग्रह के बाद भी कोई अपनी गलती स्वीकार नहीं करता तो उसके साथ कोई जोर-जबरदस्ती भी करना अनुचित है।
कुछ दिनों तक ऐसे व्यक्ति को अपने हाल पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि उसकी मनोदशा जब सामान्य अवस्था को प्राप्त होगी तो निश्चय ही वह माफी मांग सकेगा। कुछ ऐसे लोग भी समाज में हैं जो अंतर्मुखी हो अपनी गलती न तो स्वीकार करते हैं और न किसी की बात मानने को तैयार होते हैं, बल्कि भीतरी भाव में वे अपराध बोध से पीड़ित हो आत्महत्या पर भी उतारू हो जाया करते हैं। कुछ चतुर किस्म के लोग परिस्थिति से लाचार होकर अपनी गलती मान तो लेते हैं, पर वे कुछ दिनों के भीतर ही पूर्व की गलती से भी ज्यादा कोई गलती कर बैठते हैं।
क्षमा हृदय के तल से उत्पन्न वह भाव है जो व्यक्ति के चेतन और अचेतन मन को पहले शुद्ध करता है और बाद में इसके प्रतिबिंब समाज के लिए प्रेरक प्रसंग भी बनते हैं। समस्त मनमुटाव दूर करते हुए खटास को निकालकर बुझे रिश्ते को नई शुरुआत देनी चाहिए, क्योंकि जो बात रिश्ते के आत्मिक निर्वहन में है, वह छोटी-छोटी बातों पर संबंध विच्छेद करने में नहीं है। क्षमा देने के सुनहरे नियम के साथ-साथ एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह भी है कि हमसे अगर किसी भी परिस्थिति में गलती हुई है तो हमें शांतचित्त हो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।
क्षमा सिद्धांत का मधुर पक्ष है कि क्षमा मांगने या देने से कोई छोटा-बड़ा नहीं होता, बल्कि संकुचित मानसिकता से हम ऊपर उठ जाते हैं, मन हल्का हो जाता है, सामने वाले व्यक्ति पर अपने प्रेम और स्नेह से जीत पा लेते हैं जो हमारे व्यक्तित्व के विशेषण में एक अंश की वृद्धि कर देता है।