हेमंत कुमार पारीक

कुछ वर्ष पहले बेटी को कोचिंग दिलाने के लिए बाहर जाना पड़ा। वैसे तो आजकल हर बड़े शहर, राज्यों की राजधानियों, में जाने-माने कोचिंग संस्थानों की शाखाएं खुल गई हैं। फिर भी मुख्य कोचिंग केंद्र की बात अलग होती है। राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में इनका बोलबाला रहता है। शायद इसीलिए ज्यादातर मां-बाप की कोशिश होती है कि उनका बच्चा मुख्य कोचिंग में ही पढ़े। आजकल बहुत सारे माता-पिता चाहते हैं कि बेटी भी बेटों की तरह आगे बढ़े। इसलिए उन्हें अपनी बेटियों को भी दूसरे शहर में पढ़ाई के लिए भेजने में संकोच नहीं होता।

मगर आज से तीस-चालीस वर्ष पहले तक लड़कियां चूल्हे-चौके तक सीमित थीं। एक आयु में उनका विवाह कर दिया जाता था और फिर वे पूरे घर की जिम्मेदारी जिंदगी भर निभाती थीं। चूंकि हमारी बेटी प्रतिभाशाली थी, इसलिए उसे अच्छी से अच्छी कोचिंग दिलाने के उद्देश्य से एक मान्य कोचिंग संस्थान में प्रवेश दिला दिया था। साथ ही उसके जन्मदिन पर उपहार स्वरूप मरफी का एक ट्रांजिस्टर उसे भेंट किया, ताकि खाली समय में वह मनोरंजन कर सके। मरफी रेडियो के साथ भूली-बिसरी यादें जुड़ी हैं। वही मरफी, जिसके ‘लोगो’ में एक बच्चे की तस्वीर हुआ करती है। पहले बड़े आकार में आते थे। बाद को छोटे आकार में भी मिलने लगे। उसी पर हमने पहला गाना सुना था- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…।

अब वक्त बदल गया है। मगर इतना बदल जाएगा, उसकी कल्पना शायद किसी ने नहीं की थी। मोबाइल ने काया पलट कर रख दी है। मनोरंजन का हर साधन उसमें उपलब्ध है। और मरफी वाले जमाने के दृश्य जब आंखों के आगे से गुजरते हैं, तो लगता है कि इस जमाने का जहर गले में अटक गया है। उस वक्त सौ में से तैंतीस अंक पास होने के लिए जरूरी हुआ करते थे। उस सीमा रेखा के नीचे फेल तथा ऊपर पास!

तैंतीस की संख्या वाले दिन चले गए। अब लौटने से रहे। अब वह संख्या किसी की राह में रोड़ा नहीं बनती। आजकल ‘परसेंटाइल’ का चलन है। सांख्यिकी की गूढ़ शब्दावली है। कहीं-कहीं यानी घोषित अच्छे संस्थानों में तो नब्बे प्रतिशत से ऊपर अंक पाने के बावजूद प्रवेश पात्रता से वंचित होना पड़ता है। और अब तो हद हो गई है। कोरोना की आपदा के बाद तो शिक्षा भी आनलाइन हो गई है। बदलते दौर में ‘ऐप’ आ गए हैं।

कोचिंग संस्थान और शिक्षकों की छवि धूमिल पड़ रही है। पता नहीं, कल स्कूल-कालेज में ताले पड़ जाएं और हर कालखंड के बाद बजने वाले घंटे की आवाज आनी बंद हो जाए। वरना तो अंतिम कक्षा के बाद देर तक बजने वाले घंटे का इंतजार रहता था। खेल के मैदान की तरफ दौड़ लगाने को पांव मचलने लगते थे। जैसे ही टन्न-टन्न लंबी घंटी बजती, बच्चे बस्ता लिए भाग खड़े होते। मानो जेल से छुटकारा मिला हो। आज बस्ते भी वक्त के प्रवाह में बह गए। स्कूल के घंटों की मधुर आवाज सुनने को कान तरसते हैं और खेल के वे मैदान सूने-सूने से हैं। वरना तो मैदान में कहीं बच्चे खो-खो खेल रहे होते थे, कहीं पतंग उड़ाते नजर आते थे, तो कहीं बांस या बल्ली लिए पतंग लूटते दिखते थे। आज वे दृश्य चलचित्र की भांति आंखों के आगे से गुजरते हैं और कानों में मधुर गाना गूंजने लगता है- कोई लौटा दे मेरे…।

दो-तीन वर्ष पहले आइटीआइ का एक छात्र मेरे पास आया था। किसी मित्र ने उसे मेरे पास भेजा था। उदास चेहरा लिए मेरे सामने खड़ा था। आइटीआइ की परीक्षा पास नहीं कर पा रहा था। उसके हाथ में प्रश्नोत्तरी थी। मैंने प्रश्नोत्तरी में पूछे जाने वाले महत्त्पूर्ण प्रश्नों पर निशान लगा दिए और वह खुशी-खुशी लौट भी गया। उस वक्त, जब हम पढ़ा करते थे, इस प्रकार की प्रश्नोत्तरी का चलन नहीं था। केवल पाठ्यपुस्तक हुआ करती थी। प्रश्नोत्तरी तो त्वरित काफी जैसी होती है। मगर प्रश्नोत्तरी के जरिए उसने परीक्षा पास भी कर ली। इतना उत्साहित था कि डिप्लोमा में प्रवेश भी ले लिया।

मगर ढाक के वही तीन पात! फिर चला आया। तैंतीस नंबर के खेल में उलझ गया था। प्रथम और द्वितीय सत्र से आगे नहीं बढ़ पा रहा था। इसलिए उसने पढ़ाई छोड़ने का मन बना लिया था। हतोत्साहित था। मैंने उसका उत्साह वर्धन किया। उसके तुरंत बाद पूर्णबंदी का एलान हो गया गया। शिक्षा और परीक्षा आनलाइन हो गई। तैंतीस नंबर की संख्या हो गई। हाथ में अंकसूची लिए वह उदास था। सत्तर प्रतिशत अंक आए थे। बोला- सर, इससे कुछ होने-जाने वाला नहीं है। फेल होने जैसे अंक हैं। अब तो नब्बे के ऊपर पास माना जाता है। वह एकटक मेरी शक्ल देख रहा था, पर मेरा ध्यान मरफी के ‘लोगो’ वाले उस बालक के चित्र पर था, जो मुंह पर अंगुली रख कुछ सोच रहा है।