ठीक ही यह माना जाता है कि यह दायित्व माता-पिता का ही है कि वे अपनी संतान में ‘साझा’ करने का संस्कार डालें। अगर बच्चा कोई चीज खा-पी रहा है और वहां दूसरे भी मौजूद हैं, तो वह अपने हिस्से की मिठाई-नमकीन, फल-चाकलेट-टॉफी या चिप्स उनकी ओर भी बढ़ा दे। जब-जब समाज में साझा करने की यह प्रवृत्ति कम होती है, स्वाभाविक रूप से समाज में विसंगतियां-विषमताएं भी अधिक बढ़ती हैं। बच्चे के लिए ‘समाज’ अपने को सबसे पहले तो माता-पिता, परिजनों, पड़ोसियों, शिक्षकों के रूप में ही प्रकट करता है। वही उसे संस्कार भी देते हैं, उसका खयाल भी रखते हैं।

यह अकारण नहीं है कि जब कोई बच्चा या बच्ची खाने-पीने की अपनी कोई चीज हमारी ओर बढ़ा देता है, तो हम उस पर प्रसन्न होते ही हैं, एक प्रकार की ‘कृतज्ञ भावना’ से भी भर उठते हैं। अगर उसके माता-पिता वहां मौजूद हैं, तो उनकी ओर भी प्रशंसा के भाव से देखने लगते हैं कि उन्होंने बच्चों को कितनी अच्छी शिक्षा दी है। कोई बच्चा जब हमसे किसी चीज का साझा करना चाहता है तो जरूरी नहीं कि हम उसे ले ही लें। लेकिन यह साझा हम उससे तो कर ही रहे होते हैं, उसके माता-पिता या अभिभावकों, परिजनों से भी कर रहे होते हैं। सच पूछें तो साझा-संस्कृति का यही मूल और मूल्य है। दोस्ती का आधार भी साझापन ही होता है, जो धर्म, संप्रदाय और जातियों को भूल कर सहज ही पनपती है- मुहल्लों और स्कूलों में।

जिसे हम ‘साझा संस्कृति’ या गंगा-जमुनी तहजीब कहते हैं, वह इसी साझे का नतीजा है। खान-पान, पढ़ाई-लिखाई, बोली-बानी, खेल-कूद, पहनावे और साहित्य-कलाओं से लेकर कारीगरी और विभिन्न हुनर इसकी परिधि में आते हैं। यह एक दिन में नहीं बनी है। इसे भिन्न धर्मों और संप्रदायों के ‘अभिभावकों’, बुजुर्गों ने सींचा और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित किया है। यह अकारण नहीं है कि इस ‘साझेपन’ पर अगर कहीं से कोई चोट या दरार पड़ने लगती है तो हम चौंक उठते हैं, त्रस्त और दुखी होते हैं।

अक्सर ‘दरार’ डालने वालों को इस साझा संस्कृति का पूरा मोल पता नहीं होता, इसलिए वे मानो साझा करने के खिलाफ ही उठ खड़े होते हैं। पर इतिहास गवाह है कि यह ‘अलगाववाद’, वह चाहे किसी भी धर्म-जाति, संप्रदाय-वर्ग की ओर से आ रहा हो, कभी समाज और मानवीय मूल्यों के लिए हितकर नहीं होता है। सदियों से इस देश में साझा करने की संस्कृति पनपती और फलती-फूलती रही है। उसके बहुत अच्छे नतीजे भाषा-भूषा, संगीत-कला-साहित्य आदि में देखने को मिलते रहे हैं। हमारी आंखें मानो विविध-रंग एक साथ देखने में दीक्षित की गई हैं। हवा में भी हम विविध प्रकार की सुगंधियां पाना चाहते हैं।

ऐसा नहीं रहा कि अलगाव में ‘सुख’ लेने वाली प्रवृत्तियां नहीं रही हैं, पर जब वे अत्यंत मुखर होती हैं, तो कानों का चौकन्ना होना लाजिमी हो जाता है। इसी चौकन्नेपन ने पुरस्कार वापसी को भी दूर तक प्रेरित किया है और बिहार के नतीजे तो ‘जयघोष’ के साथ विनम्र भाव से यह भी बता रहे हैं कि इस देश और समाज को साझा-संस्कृति ही प्रिय है। साक्षरता बहुत जरूरी है। लेकिन यह सच्चाई है कि हमारे देश का तथाकथित निरक्षर, लेकिन ‘ज्ञानी’ किसान, मजदूर, कारीगर और ठेलों पर या सड़क किनारे दुकान लगा कर सामान बेचने वाले लोग इस ‘साझेपन’ के मूल्य को अच्छी तरह पहचानते और जरूरत पड़ने पर हमेशा एक-दूसरे के काम आते रहे हैं- सुख-दुख के वक्त में।

उन्माद फैलाने वाले यह भूल जाते हैं कि ‘उन्माद कभी ज्यादा देर तक नहीं ठहरता’। यह पंक्ति मैंने वर्षों पहले अपनी एक कविता में लिखी थी। साझापन ही दंभ को कम करता है। वही तो दूसरे के गुणों से आपको परिचित कराता और आपको अपनी ‘अकेली’ और इकहरी दुनिया से बाहर लाता है। इस संदर्भ में गांधी, टैगोर, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, प्रेमचंद और उन हजारों कृति-व्यक्तित्वों की भी याद आती है, जिन्होंने अपनी सोच और कर्म से यह दिखाया-सिखाया कि साझेपन, सौहार्द, भाईचारे और जीवन के उदात्त, मानवीय मूल्यों से ही प्राणों को शक्ति मिलती है।

‘तनाव’ में जीने वाले समाज कभी फल-फूल नहीं सकते। इसलिए तनाव की राजनीति करने वालों, लड़ाने-भिड़ाने वालों को यह मोटी बात तो समझ में आनी ही चाहिए कि दरारें पैदा करना अच्छी बात नहीं होती। साझा संस्कृतियां, असहमतियां भी सुनती ही हैं, पर एक विनम्र संवाद चला कर। आक्रामक होना उनके स्वभाव में ही नहीं रहा, न हो सकता है। साझे का मतलब ही यही है कि दो इकाइयां जब साझा भूमि बनाती हैं, तो वहां दरारों का भला क्या काम, और क्यों?  (प्रयाग शुक्ल)