राजेंद्र मोहन शर्मा

ब्रह्म चिंतातुर हैं! कहां विलुप्त हो गए वे आखर, जिन्हें ब्रह्म होने का रुतबा हासिल था। इलाही से दुआ मांगी थी वह जुबां अता करे। लेकिन ईश्वर से बख्शीश में मिली तीन इंची जुबां तसल्ली बख्श साबित न हुई और फिर पहले इसे गज भर लंबा बनाया और बाजार ने इसे बांस से भी ज्यादा लंबी हैसियत दे दी। अब इससे शब्द झरते नहीं हैं, फिसलते हैं। फिसले हुए शब्द बेकाबू हो रहे हैं।

साहित्य, संस्कृति और खबरनवीसों की दुनिया में बेकाबू शब्दों ने संवेदनाओं को सोख लिया है। जुबां अब सलीके की निगहबान नहीं है। अब वह सलाखों की तरह लपलपा रही है। शब्द प्रपात से उछले शब्दों में रक्त की प्यास है, प्रतिष्ठा निगलने की भूख है। असल भूख से उसका वास्ता कैमराजीवी सरीखा है। शब्दों का स्वच्छ स्वच्छंद विचरण काराओं से घिरा है।

शब्दों के प्रवाह के लिए विचार चाहिए, विचार को भाव और भावों के लिए अभावों के प्रति संवेदी मन। मन को सामग्री विश्लेषण के लिए व्यापक अध्ययन का क्षेत्र चाहिए। लेकिन जहां तुरंत खिचड़ी पकानी हो, वहां इस सब पर समय जाया करना नादानी है। लोकप्रियता की लहरों पर सवार होने के लिए बेताब लोग बाजार में खड़े कबीरा को नहीं ताकते। वे माप रहे हैं औकात और ओहदा। अब व्यापारी जानते हैं कि निवेश कम है और मुनाफा ज्यादा। इसलिए प्रकाशन से लेकर विज्ञापन तक सब जगह शब्दों की खरीद-फरोख्त मचल रही है।

अब शब्दों को अर्थ से नहीं, शक्ति से तोलकर शब्दशक्ति कहा जाने लगा है। लेकिन इसको व्यापार कहा जाए तो लोग गुस्सा हो जाते हैं। शब्द तो मात्र कारण है, उसका प्रगटीकरण अर्थ है। उसका और शक्ति साधन या व्यापार का विस्तार। शब्द शक्ति शब्द के अर्थ से अनर्थ का ज्ञान संभव करा रही है। इसलिए अब प्रचलित अर्थ छोड़ कर विचारहीन तत्त्व को शब्दशक्ति कहा जाने लगा है। शब्द की तीन शक्तियों में से एक है वाचक। अब वे वाचाल हो चुके हैं। वे लक्षित कुछ करते हैं, प्रस्तुत कुछ और। व्यंजकों का अब व्यंग्य से नहीं, व्यंजनों के वास्ता रह गया है। शब्द शिल्पियों की जगह बाजीगरों ने हथिया लिया है।

लेकिन मौलिकता भी कभी नष्ट होती है क्या? वह भी शब्दों और शब्दों से बने काव्यों-महाकाव्यों की! इनमें गुंफित सारगर्भित भावों-अनुभावों की, शाश्वत विचारों की! साहित्य की अमूल्य धरोहर को भला कौन नकार सकता है! आज जब पवित्र पुस्तकों में क्षेपक चिपकाए जा रहे हैं, फिर उन्हें बीच बहस के अखाड़ों में उजागर कर खुद को सूरमा घोषित किया जा रहा है, तब याद रखने की जरूरत है कि वे मूल्य, जिनकी रक्षा पीढ़ियों से होती आ रही है और जिनका स्वागत असंख्य संताने करके गौरवान्वित हो रही थीं, वे सब अनंत में विश्रांति पा रहे हैं और तमाशा जारी है।

पुस्तकों का अस्तित्व संकट में है, इंसानियत धुआं-धुआं होने को अभिशप्त है। सहज ही में सब कुछ उपलब्ध होने की दशा ने यह सरल, सुगम रास्ता अख्तियार कर लिया है। अब लिखित-प्रकाशित शब्द की सत्ता को चुनौती देने वाले अखाड़ेबाजों की लगी पड़ी है। तो फिर क्या निकट भविष्य में इनका हश्र भी उन पुरातन अवशेषों के समान ही होने वाला है? कभी जो धर्म, जाति, संप्रदाय की संकरी गलियां होती थीं, आज शब्द बाजार के कंधे पर सवारी करके वे टोल-बूथ रहित आठ और सोलह लेन के ‘वन नेशन वन बेल्ट’ के उपजाऊ खेतों और फैक्टरियों के लिए कच्चा माल तैयार करने में जुटे हैं। जिन शब्दों में ऊपर उठ कर समूचे समाज के उत्थान के लिए अनूठे सपनों को कार्यरूप देने की अद्भुत क्षमता थी, उनमें अनेक वजनी शब्द भी निशब्द हैं। शेष जो हैं, वे बाजार में।

मौन रहा अगर कोई तो उनका अपराध गिना गया, लेकिन जो बड़बोले हैं, उनका हिसाब कौन करेगा? यों सभी मनुष्य अपने जीवन में शब्द आराधना के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। कुछ अपने धन-वैभव समृद्धि के लिए, तो कुछ अपनी कल्याण के लिए, लेकिन जब शब्द तलवार की धार से तीखे होकर अपने प्रतिद्वंद्वी के पराभव के लिए मचलने लगें तो समझ लीजिए कि राष्ट्र कहां है। ‘ढाई आखर’ की बुनियाद हिलने लगी है। ‘मिल-जुल कर कैसे रहना है’ के सूत्रवाक्य अब मिलावट के उसूलों पर मर मिट रहे हैं। खून की होली इंसानियत के भरोसों को तोड़ रही है।

अक्षर का सत्य से नाता बिखरने लगा है, जिसकी कोई नजीर नहीं मिलती है। कड़वाहट फूलों में बसर कर फैली है, हवा जहरीली हुई जा रही है। शब्दों से रंग, रंगों से रंगत गायब है। चाटुकार चुल्लूभर पानी में नहा कर गंगा स्नान का बखान कर रहे हैं। जिन्होंने रोम-रोम गिरवी रखा हो, वहां उनसे जमीर की बात बेमानी है। शब्दों की चक्करघन्नी वाले उस्ताद झूठ को सच और सच को झूठ बताने में मास्टर हो गए हैं। वे पाप की गठरी सिर पर लादे रोज गंगा नहाते हैं।