कुछ वर्ष पहले एक विदेशी ने बातचीत में पूछा कि मैं कितने विद्यार्थियों को पढ़ाता हूं। मेरे सामने समस्या उत्पन्न हो गई कि मुझे वास्तविक तथ्य बताना चाहिए या नहीं! अगर मैं उससे यह कहता कि अकेले पांच सौ छात्र-छात्राओं को पढ़ाता हूं, तो यह उसके लिए जितना अविश्वसनीय होता, राष्ट्रीय छवि के लिए उतना ही शर्मनाक भी। मैंने एक कल्पित संख्या बताई और विषयांतर कर उसके पास से खिसक लिया।

निजी विद्यालयों में संभव है कि सिर्फ सेवानिवृत्ति या शिक्षक की असामयिक मृत्यु की स्थिति में कोई पद रिक्त हो, लेकिन शासकीय विद्यालयों-महाविद्यालयों में कभी भी कोई पद स्थानांतरण से रिक्त हो सकता है। ऐसे में पांच सौ विद्यार्थियों का एकल शिक्षक होना भारतीय संदर्भों में स्वाभाविक घटना है। मगर इसके शर्मनाक लगने का कारण यह था कि खुद मेरी शिक्षा केंद्रीय विश्वविद्यालय के जिस विभाग से हुई थी, वहां तीस-पैंतीस शिक्षक थे। मुझे अपनी बेहतर शिक्षा-सुविधाओं पर गर्व हुआ, पर उस शैक्षणिक कुपोषण की ओर भी ध्यान गया, जिसके शिकार मेरी शिक्षण-संस्था के विद्यार्थी थे।

जरूरी नहीं कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के विद्यालयों-महाविद्यालयों में समान परिस्थितियां हों। बड़े महानगरों के शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक प्रभाव वाले सूत्रधारक शिक्षकों का भारी जमावड़ा देखा जा सकता है। महिला सशक्तीकरण और आधुनिकता के प्रभाव के कारण यह भी संभव है कि महिला विद्यालयों में पुरुष शिक्षकों की संख्या अधिक हो और महिला शिक्षकों की कम, क्योंकि अब रुचि की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं और निजी सुविधाएं-असुविधाएं अधिक प्राथमिक हो गई हैं। सच तो यह है कि समवर्ती सूची में होने के बावजूद अधिकतर राज्य सरकारों के लिए उनके शिक्षा-केंद्र और उनमें तैनात शिक्षक मात्र कंप्यूटर में दर्ज आंकड़े या फिर लोहे की सुरक्षित आलमारियों में बंद फाइलें हैं। पदोन्नति के परंपरागत विधान के अनुसार सबसे बूढ़ा अधिकारी वहां अपने बचे हुए दिन गिनते हुए थका-ऊबा पहुंचता है और अपनी सेवानिवृत्ति के दिन गिनता और अपनी पेंशन के कागज तैयार करवाता हुआ तंत्र-मुक्त होता जाता है।

छात्र-छात्राओं की एक बड़ी संख्या शिक्षकों की नई तैनाती की प्रतीक्षा करती हुई आगामी परीक्षा की तैयारियों में लग जाती है। सरकारों के लिए स्थानीय स्तर पर वैकल्पिक नियुक्ति का निर्देश जारी करना इसलिए भी मुश्किल है कि एक सीमा के बाद विभिन्न कानूनों का साक्ष्य देकर किसी की नियुक्ति को स्थायी करने या न करने का अधिकार अधिवक्ताओं के हाथ में चला जाता है। विद्यार्थी शिक्षकों के रिक्त पदों के लिए व्यवस्था को कोसते हुए एकलव्य बने लक्ष्य-संधान करते हुए आगे निकल जाते हैं। आज मुद्रित सामग्री के युग में वाचिक परंपरा के गुरु का महत्त्व वैसे भी कम होता जा रहा है। गुरु गोविंद सिंह ने तो इस सच्चाई को बहुत पहले जान लिया था। गुरु पद का उत्तराधिकार गुरु ग्रंथ साहब को उन्होंने खूब सोच-समझ कर सौंपा था।

इस शासकीय अधिसूचना के बावजूद कि कक्षाओं में विद्यार्थियों की उपस्थति सुनिश्चित की जाए- ऐसे भी प्रवेशार्थी मिलते हैं, जो सबसे पहले यही पूछते हैं कि रोज कक्षाएं करने की अपरिहार्यता तो नहीं रहेगी? पढ़ने के बाद भी बेरोजगारी की संभावना को देखते हुए वे शिक्षा प्राप्त करने की लागत को कम करना चाहते हैं। विद्यालयों में विद्यार्थियों की कम उपस्थिति का एक कारण यह भी है कि अभिभावक और विद्यार्थी दोनों ही घर से महाविद्यालय की दूरी और उसमें लगने वाला समय और किराया देखते हैं। छात्राएं कानून-व्यवस्था की स्थिति और रास्ते में पड़ने वाले असुरक्षित स्थलों, उनसे संभावित खतरों और जोखिम का आकलन करेंगी। अगर विद्यालय या महाविद्यालय में संबंधित विषयों के शिक्षक कम या बिल्कुल नहीं हुए तो फिर विद्यार्थी कक्षा में मिलने वाली शिक्षा की गुणवत्ता का मूल्यांकन करेगा। वह स्वाध्याय पर बल देगा या फिर कक्षा के स्थान पर पुस्तकालय में समय बिताना अधिक उपयोगी समझेगा।

पाठ्य सामग्री, मुद्रित नोट्स, कुंजी, गाइड और श्योर सीरीज का एक बड़ा वैकल्पिक बाजार विद्यार्थियों को लुभाता और आश्वस्त करता रहता है। कभी-कभी सटीक खुफियागीरी या फिर भारी लेन-देन के बाद परीक्षा में सहायक सामग्री बाजार में उतारी जाती है। विश्वविद्यालयों के छोटे से या बंद तंत्र में गुपचुप इस तरह का भ्रष्टाचार संभव होता है। कई बार अन्य शिक्षकों के अनुभवजन्य सटीक पूर्वानुमान ऐसे धंधे को विश्वसनीय बना देते हैं। इसमें शिक्षकों की आर्थिक महत्त्वाकांक्षा भी शामिल रहती है, जिसके कारण वे खुद ट्यूशन और कोचिंग आदि करवाने के लिए विद्यार्थियों पर दबाव बनाते हैं। क्योंकि कोचिंग का धंधा भी बाजार की कड़ी प्रतिस्पर्धा से होकर गुजरता है। भ्रष्ट नियुक्तियों की संभावना को देखते हुए किसी संस्थान के शिक्षक को अयोग्य नहीं, तो कमतर होने की संभावना भी है। शिक्षा का बाजार भी उसे अधिक प्रतिस्पर्धी, नवीन और सुविधाजनक बनाता है, तो उसे बुरा भी नहीं कहा जा सकता।