कहावतों का उपयोग बातचीत में जीवंतता पैदा करता है। उससे बात में प्रभाव पैदा होता है। कहावतें दरअसल, लोकजीवन के संचित अनुभवों का निचोड़ होती हैं। छोटी-सी पंक्ति में बड़ा अनुभव समाया होता है। वह अनुभव किसी न किसी रूप में हर किसी के जीवन से जुड़ा होता है। इसलिए उनका प्रभाव सब पर पड़ता है।

मगर कुछ कहावतें ऐसी भी प्रचलित हैं, जो किसी खास लिंग, धर्म, जाति, समुदाय और रिश्तों की नकारात्मक छवि पेश करती हैं। यह सोचे बिना कि उन कहावतों का संबंधित व्यक्तियों, समुदायों, वर्गों पर क्या असर पड़ता होगा, हम धड़ल्ले से उनका प्रयोग करते हैं। भारत में महिलाओं को लेकर अनेक ऐसी ही कहावतें गढ़ी गई हैं, जो उनके अबला और कमजोर होने का बोध कराती रहती हैं।

महिलाओं को लेकर एक बहुत आम कहावत है, जो अक्सर मर्दों को कमजोर बताने के लिए उपमा के तौर पर गढ़ी गई है- ‘हमने अपने हाथ में चूड़ियां नहीं पहनी हैं’। सामान्यतया इस कहावत के अनुसार हाथ में चूड़ी पहनना कमजोर होने की पुष्टि करता है। अपनी मर्दानगी जाहिर करने के लिए अक्सर लोग महिलाओं को तुलना में रखते ही हैं। यह समाज की उसी मानसिकता को जाहिर करती है।

इस कहावत का इस्तेमाल हम तब करते हैं जब हमें यह बताना होता है कि हम महिलाओं की तरह कमजोर नहीं हैं। यह कहावत हमारे समाज में इस कदर घुलमिल गई है कि कई बार महिलाएं भी स्वयं इस और इस तरह की अन्य कहावतों का उपयोग बिना किसी हिचक के करती हैं।

एक पत्रकार मित्र ने बताया कि एक बार उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता के घर के पास महिलाओं की भीड़ प्रदर्शन के लिए इकट्ठा हुई। प्रदर्शन में शामिल महिलाएं उस नेता को विरोध स्वरूप भेंट में देने के लिए चूड़ियां साथ लाई थीं। उस प्रदर्शन में शामिल महिलाओं को शायद यह मालूम नहीं होगा कि चूड़ियां भेंट में देना कहीं न कहीं उनका खुद का अपमान है।

किसी विषय को लेकर किसी का विरोध करना हिम्मत का काम है, लेकिन दूसरी तरफ उस विरोध प्रदर्शन में चूड़ियां लाने का मकसद यह जाहिर करता है कि चूड़ियां पहनने वाला कमजोर होता है। यह भी देखा गया है कि पुरुष भी कई विरोध प्रदर्शनों में चूड़ी साथ लेकर आते हैं, यह बताने के लिए कि हम महिलाओं की तरह कमजोर नहीं हैं। हमारा विरोध प्रदर्शन अभी चलेगा।

दरअसल, पीढ़ियों से चली आ रही कहावतें जब समाज में स्थापित हो जाती हैं, तो वह विचार या सोच का रूप ले लेती हैं और उन्हें हटाना काफी मुश्किल हो जाता है। कई भारतीय फिल्मो में भी इस कहावत को चरितार्थ करते हुए दृश्य फिल्माए गए हैं, जिनमें नायक अपने को ताकतवर दिखाने के लिए खलनायक के सामने चूड़ियां फेंकता है। इस दृश्य पर दर्शक, जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं, तालियां बजाते हैं। फिल्मों में कई बार नायक और खलनायक के बीच लड़ाई में इस कहावत का संवाद के रूप में इस्तेमाल हुआ है।

अभी कुछ महीने पहले एक राष्ट्रीय हिंदी अखबार में एक फोटो छपा, जिसमें कई महिलाएं आधुनिक स्वचालित राइफल लिए पंजाब के जालंधर शहर में गणतंत्र दिवस की परेड का अभ्यास कर रही थीं। उसमें खास बात यह थी कि वे अपने दोनों हाथों में खूब सारी चूड़ियां पहने हुई थीं। उस तस्वीर के नीचे की तरफ एक शब्द छपा था- ‘जज्बा’। जब उस तस्वीर पर नजर पड़ी तो महिलाओं को लेकर ‘चूड़ी वाली’ कहावत पर ध्यान गया। यह तस्वीर पूरी तरह इस जैसी तमाम कहावतों को खारिज करती है।

वैसे महिलाओं का कमजोर या ताकतवर होना उनके समाजीकरण से जुड़ा मामला है। यहां एक सवाल यह है कि आखिर उस तस्वीर पर ‘जज्बा’ शब्द क्यों लिखा था? क्या अगर पुरुष इस तरह की परेड में शामिल होते, तो यह जज्बा शब्द तस्वीर के साथ नहीं लिखा मिलता? इस सवाल का जवाब इस कहावत में है।

हमने अपनी सोच को इस तरह से ढाल लिया है कि हम महिलाओं को कमजोर होने के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इससे अलग हमें कुछ भी दिखाई देता हैं, तो उसे हम अपवादस्वरूप मानते हुए महिलाओं के लिए शाबाशी से जुड़े विशेषण का तमगा पहना देते हैं। वैसे इतिहास के पन्ने पलटने पर महिलाओं के मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत होने के ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे, लेकिन हमारा समाज इन उदाहरणों को किताब के पन्नों से बाहर नहीं निकाल पाया है।

समाज में इस तरह की तमाम कहावतें, जो किसी न किसी पूर्वाग्रह के चलते गढ़ी गई हैं, उनके उपयोग से हमें बचना होगा। इस तरह की कहावतों के उपयोग के प्रति हम जितना ज्यादा सजग रहेंगे समाज के लिए उतना ही अच्छा होगा। आखिर भाषा संपदा भी तो हमारी संस्कृति का हिस्सा है। फिर उसे ऐसी कहावतों के जरिए भदेस होने क्यों दें।