देवेश त्रिपाठी

सुबह-सुबह जब जाकर बाहर आया तो कबूतर मेरे कमरे के रोशनदान पर चहलकदमी कर रहा था। खूब गुटूर-गूं कर रहा था। फाल्गुन मास में अधिकतर कबूतर और चिड़ियों का झुंड तथा कौवा, कठफोड़वा, नीलकंठ और बहुत से पशु-पक्षी सिर्फ खंडहरों पर बसेरा नहीं डालते, बल्कि वहां भी जाते रहते हैं, जहां इंसान होते हैं, जहां उजाला होता है, जहां लोग होते हैं और जहां से सकारात्मक ऊर्जा चारों तरफ दिखती है।

वे वहां भी अपने लिए कुछ पल और कुछ भोजन चुनने जाते रहते हैं। इंसान और पशु-पक्षी दोनों का रिश्ता इस पृथ्वी पर सदियों से कायम रहा है। लेकिन हम मनुष्यों ने पशु-पक्षियों के साथ न जाने कितने आक्रामक व्यवहार किए हैं। बेवजह उन्हें तंग किया है, छत की मुंडेर से उसे भगाया है और सिर्फ मजे के लिए उनकी तरफ प्रहार करते रहते है।

पशु-पक्षियों के दल वहां जरूर पहुंचते हैं, जहां उन्हें स्वतंत्रता मिले, जहां वे कुछ देर वह शरारत कर सकें, अपनी मर्जी से उछल-कूद कर सकें, कबूतर कुछ देख कर गुटर-गूं कर सकें, अपने किसी दूसरे साथी को वहां आमंत्रित कर सकें, आपस में अपनी भाषा में एक दूसरे से थोड़ी बातचीत कर सकें, गले मिल सकें और फिर अपने ठिकानों की ओर चल पड़ें।

हमारा अपना जीवन है तो हम चाहते हैं कि हमारे बीच कोई गैरजरूरी दखलअंदाजी न करें। लेकिन हमने अपनी जो भी दुनिया बनाई हुई है, उसमें मनुष्य और बुद्धि होने के नाते हमारे वर्चस्व ने बड़ी भूमिका निभाई। हमने अपने लिए सब हासिल कर लिया, लेकिन मनुष्येतर जीव-जंतुओं का बहुत कुछ छीन कर।

जबकि मनुष्य होने के नाते ही यह जरूरी है कि हमारे भीतर इतनी मानवीय संवेदना हो कि हमें कठोर और आक्रामक व्यवहार पशु-पक्षियों के साथ नहीं करना चाहिए। पशु-पक्षी भी अपने प्रति किए गए व्यवहार और ऐसा करने वाले व्यक्ति को याद रखते हैं। कुछ पक्षी जब किसी दूसरी छत के रोशनदान से हमारी छत की तरफ देखते होंगे तो उन्हें वहां आने के लिए सोचना पड़ता होगा। वे हमारे दर पर आने से अपने को रोके रखते है। कबूतर, कौवा परेवा, गौरैया, यदा-कदा नीलकंठ भी शहरों की अपेक्षा गांव में ज्यादा दिखते हैं।

गांव के लोग सदा से अपने अंदर ऊर्जा और एकाग्रता को बनाए रखने में पशु-पक्षियों की बहुत मदद लेते रहे हैं। शहरों के लोग अक्सर दिन भर काम के सिलसिले में या तो गायब रहते हैं या फिर कमरे के अंदर रहते हैं। ऐसे में उनकी बातचीत पशु-पक्षियों से इतनी अच्छी नहीं हो पाती, जितनी गांव के लोगों की होती है।

गांव से चल कर शहर में बस गई आबादी में से भी बहुत सारे लोग शहरों की भागमभाग वाली जीवनशैली और तेज रफ्तार जीवनचर्या के आगे विवश होते हैं। वे कभी-कभी काम के दबाव में इतने अवसाद तथा तनाव से ग्रस्त हो जाते हैं कि उन्हें अपना ही इलाज समझ में नहीं आता है। जबकि खुले में पशु-पक्षियों को निहारा जाए, उनसे बातें की जाए तो मन बहुत हल्का हो जाता है।

यों पशु या पक्षी हमारी घरों के कोनों या छतों पर हमेशा के लिए अपना कब्जा नहीं चाहते। वे तो बस थोड़ी देर के लिए आते हैं, ताकि कुदरती तौर पर उनके आराम की जरूरत पूरी हो सके। लेकिन इतने भर के लिए आने पर भी हममें से कई लोग अपनी चौखट पर से उसे भगा देते हैं।
सच यह है कि हमारी तरह जीवन पशु-पक्षियों का भी होता है।

प्रकृति ने उन्हें भी जीने का अधिकार दिया है। मगर हम मनुष्यों की आदत थोड़ी खराब है। ऐसे समझिए कि राह चलते किसी जानवर को बिना वजह परेशान कर दिया या छत पर बैठे पंछियों को उड़ा दिया। किसी जानवर की पूंछ पकड़ ली, कभी किसी की पीठ पर तेज मुक्का मार दिया, कभी किसी के ऊपर ढेला चला दिया तो कभी किसी के ऊपर डंडे से प्रहार कर दिया। यह सब बहुत थोड़े समय के मजे के लिए होता है, लेकिन जानवरों और पशु-पक्षियों के दिलो-दिमाग में ये बातें देर तक असर करती रहती हैं।

ध्यान रखना चाहिए कि वे बहुत संवेदनशील नाजुक और चतुर होते हुए भी शांत और धैर्यवान होते हैं। हमें खुद को इंसान मानने के नाते यह जरूरी है कि किसी भी पेड़-पौधे को नुकसान पहुंचाने या पशु-पक्षी, जीव-जंतु को चिढ़ाने से हम खुद को रोकें। इसके बजाय हम उनके साथ कुछ पलों की शांति की तलाश कर सकते हैं, सुकून का अनुभव कर सकते हैं।

एक बार हम उनकी आंखों में देखें तब शायद समझ पाएं कि हमसे ज्यादा संघर्ष इनकी आंखों में बसता है। इन आंखों में सृष्टि के उद्गम से लेकर किसी महान विपदा की पूर्व सूचना के संकेत भी हो सकते हैं। क्या पता इन्हीं आंखों में मनुष्य को जगाने का स्रोत छिपा हो और इन्होंने प्रकृति के साथ मिल कर मनुष्य की बहुत मदद की हो!

जब तक जीवन है, तब तक हमें मनुष्यों के साथ-साथ पशु-पक्षियों के साथ मिल कर अपने जीवन की यात्रा को बेहतर बनाना चाहिए। वरना हम अकेले पड़ जा सकते हैं। और जो अकेले पड़ जाएंगे उन्हें बहुधा समस्याएं घेर ले सकती हैं। अपनी प्रकृति और स्वभाव को वक्त के मुताबिक थोड़ा-सा बदले नहीं, तो कुदरत के कहर का अंदाजा हमें लगा लेना चाहिए।