हर साल बारिश के मौसम में बरसाती मेढ़कों की तरह वे चुटकुले और कार्टून फिर प्रकट हो जाते हैं, जिनमें घर से दफ्तर के लिए निकलते पति को पत्नी छाता साथ रखने की याद दिलाती है। इसलिए कि मौसम विभाग की भविष्यवाणी के अनुसार आज बारिश होने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन मौसम की भविष्यवाणी में अटकलें लगाने वाला समय बहुत पीछे छूट चुका है। मौसम विज्ञान आज एक बहुत गंभीर विषय है।
आकाश में उड़ते विमानों से लेकर सागर की छाती को चीरते विशालकाय जहाज तक के परिचालन के लिए मौसम विज्ञान जितना महत्त्वपूर्ण विषय है, उतना ही भारत जैसे कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था के आकलन के लिए भी। भारतीय मौसम विभाग के पास आज आधुनिकतम उपकरण हैं।
बहुत तेज और बेहिसाब क्षमता वाले कंप्यूटर, भू-उपग्रहों द्वारा वायुमंडल और धरती की सतह के निरंतर उपलब्ध कराए जाते छाया-चित्र और उच्चस्तरीय अनुसंधानों से मिले अल्गोरिद्म यानी गणितीय समस्याओं के समाधान के नियम आज के मौसम वैज्ञानिक के ऐसे संसाधन हैं, जिनके बिना वह एक कदम भी नहीं चल सकता।
लेकिन इतना सोचते ही मन में पांच सौ साल पहले जन्मे उस अद्भुत मौसम वैज्ञानिक का नाम कौंध जाता है, जिसकी विलक्षण प्रतिभा के पीछे न तो उच्चस्तरीय शिक्षा थी, न कोई महाज्ञानी गुरु थे। थी तो केवल धरती, आकाश, वायु-प्रवाह आदि को गहराई से देखने, समझने की क्षमता। प्रकृति के सूक्ष्मतम संकेतों को अपने अनुभव की कसौटी पर कस कर खेती किसानी के लिए अनमोल दिशा-निर्देश देने वाले इस अद्भुत व्यक्ति का नाम चतुर व्यक्तियों के लिए जातिवाचक संज्ञा बन गया।
घाघ के नाम से आज शहरी परिवेश में पलते बच्चे भले अपरिचित हों, लेकिन एक-दो पीढ़ी पहले खेती किसानी में कदम-कदम पर घाघ की कहावतें किसानों का मार्गदर्शन करती थीं। जुताई, सिंचाई और फसल कटाई के महत्त्वपूर्ण चरणों में घाघ की उक्तियां किसी कृषि-पंडित की सलाह की तरह याद की जाती थीं, पर घाघ की नजर से ग्राम्य जीवन का कोई पहलू अछूता नहीं बचा था।
हल चलाने का सही तरीका हो, मेंड़ बांधने की सही ऊंचाई हो, खाद देने के सही समय और सही खाद की किस्म का चुनाव करने का सवाल हो, घाघ के निर्देश हर कदम पर काम आते थे। दो एक बानगी प्रस्तुत हैं- ‘गोबर मिला, नीम की खली, यासे खेती दूनी भली’ या ‘नहीं किसानी में है पूरा, जो छोड़े हड्डी का चूरा’।
ये कहावतें केवल खेती किसानी तक सीमित नहीं थीं। उनकी कई कहावतों में एक समग्र जीवन दर्शन दिखाई पड़ता है जो जीवन के हर क्षेत्र में सार्थक सिद्ध होगा। ‘जो हर जोते खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी’। उद्योग धंधे से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर और जागरूक रहने का संदेश है।
उद्योगी हो या व्यापारी, राजनीतिक या सैन्य नेतृत्व, सबके लिए एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है- ‘अगहर खेती, अगहर मार, घाघ कहें कबहूं नहीं हार’। यानी खेती हो या मारपीट, जो आगे बढ़ कर पहल करता है, वह कभी नहीं हारता है। ‘उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी भीख निदान’ जैसा लोकप्रिय कथन भी घाघ की ही देन है. उनके स्वास्थ्य संबंधी नुस्खों में खान-पान, व्यायाम और सही ढंग से सोने तक के तरीके समाहित थे।
मौसम की भविष्यवाणी करने में तो घाघ को कमाल हासिल था। मौसम संबंधी उनकी उक्तियां धरती और आकाश के सुदीर्घ और पैने अवलोकन पर आधारित हैं। ऐसी कहावतों को पूरी तरह समझने के लिए ग्रह-नक्षत्रों का थोड़ा बहुत ज्ञान जरूरी है। जिसका रोहिणी, आद्रा और मृगा नक्षत्रों से परिचय ही न हो, वह इस दोहे का अर्थ क्या समझेगा- ‘रोहिणी बरसे, मृग तपे, कुछ-कुछ अद्र्रा जाए, कहे घाघ सुन घाघनी स्वान भात नहीं खाए’। घाघ जमीन से जुड़े आम आदमी थे, विद्वत्ता प्रदर्शन उनका मकसद नहीं था।
इसलिए उनकी उक्तियां सहज, सरल बोली में हैं। बादल-बूंदी के मौसम में यात्रा का निर्णय करने के लिए इससे आसान भाषा क्या होती कि ‘शुक्रवार की बादरी, रहे सनीचर छाय, घाघ कहे सुन घाघनी बिन बरसे नहीं जाए’ या ‘ढेले ऊपर चील्ह जो बोले, गली गली में पानी डोले’। यह और बात है कि ढेले अब केवल प्रायोजित दंगों में फेंके जाते हैं, अब कौन चील्ह केवल मूसलाधार बारिश से आगाह करने के लिए ऐसे उपद्रव के माहौल में अपनी बोली सुनाने आएगी!
घाघ के जन्मस्थान, निजी जीवन आदि के विषय में दो प्रामाणिक शोधकर्ताओंं के नाम महत्त्वपूर्ण हैं- रामनरेश त्रिपाठी (घाघ और भड्डुरी, हिंदी एकेडमी, 1931) और शिवसिंह सरोज। घाघ के निजी जीवन के बारे में मेरा भी एक शोध है कि घाघ स्वयं कितने ही चतुर हों, उनकी पत्नी एक परिपक्व, उदारमना और स्नेहमयी महिला जो खेती-किसानी के बारे में निर्णय लेने में पति की राय को काफी अहमियत देती थीं।
गृहस्थी के कार्यकलाप में व्यस्त होने के बावजूद घाघ की बातें धैर्य और ध्यान से सुनने वाली वे ऐसी पत्नी थीं, जिनसे वे कभी भी बेखटके कह सकते थे- ‘कहे घाघ सुन घाघनी…’! लेकिन शायद सारे अंतिम निर्णय वही लेती थीं।