आकांक्षा दीक्षित
दिन-प्रतिदिन बदलती दुनिया ने बच्चों के पालन-पोषण के तरीकों पर भी सम्यक रूप से विचार करने की जरूरत को रेखांकित किया है। आज से पंद्रह-बीस वर्ष पहले का वातावरण नितांत भिन्न था। पीढ़ीगत अंतर सामान्य बात है। मगर आज के बच्चे बिल्कुल नई तरह की चुनौतियों से गुजर रहे हैं। एकल परिवारों में अकेले होते बच्चों को सही दिशा देना समय की मांग है। जाहिर है कि अगर उन्हें सही तरीके से पालन-पोषण नहीं उपलब्ध कराया गया तो स्वाभाविक है कि वे उन माध्यमों का सहारा लेंगे, जो कई मामलों में अनर्थकारी हैं।
किशोरवय के बच्चों के मन में हजारों प्रश्न होते हैं। शारीरिक परिवर्तन मनोदशा को भी प्रभावित करते हैं। इन सबके साथ करिअर बनाने के लिए अच्छे नंबर लाने का दबाव भी उस पर होता है। ऐसे में उस बालक या बालिका को स्नेह, प्रोत्साहन, धैर्य की जरूरत होती है। ये सारे दबाव बच्चे को कभी-कभी चिड़चिड़ा भी बना देते हैं। अगर कुछ पीछे का समय याद करें, तो स्पष्ट होता है कि कैसे उस आयु में संभवतया सभी अपने माता-पिता को पिछड़ा हुआ और अपने दोस्तों को सर्वज्ञ मानते थे। ऐसा हर पीढ़ी अनुभव करती है। बच्चों को विश्वास होना चाहिए कि उनके बड़े हर स्थिति में उनके साथ हैं। आजकल छोटे बच्चे भी बहुत जानकारी रखते हैं, पर उसे कैसे प्रयोग करना है, इसकी परिपक्वता उनमें नहीं होती। बस यहां उन्हें दिशा देने का कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
कुछ बातें हर माता-पिता या अभिभावक को जरूर ध्यान रखनी चाहिए। बच्चा भी समाज का अंग है, उसे एक सुसंस्कृत नागरिक बनाना भी हमारा ही काम है। पालन-पोषण संसार का सबसे कठिन काम है और इसकी कोई बनी-बनाई विधि नहीं है। बच्चे अनुकरण से सबसे ज्यादा सीखते हैं। अगर हम स्वयं किसी बुरी आदत जैसे धूम्रपान के आदी हैं, तो बच्चे को कैसे रोकेंगे।
हम अच्छी पुस्तकें पढ़ेंगे तो हमारे बच्चे भी अच्छा साहित्य पढ़ने का प्रयास करेंगे। हमारे देश में तो हितोपदेश, पंचतंत्र, रामायण, महाभारत जैसी अनेक शिक्षाप्रद कहानियां और चरित्र निर्माण करने में सहायक साहित्य उपलब्ध है, जो बिना किसी उपदेशात्मक बात के बच्चों में धैर्य, साहस, नैतिकता जैसे गुणों का बीजारोपण कर देती है। इसलिए बचपन से ही बालकों को अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। बालोपयोगी अंग्रेजी और रूसी साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, वह भी बच्चे के सर्वांगीण विकास में सहायक सिद्ध हो सकता है।
बच्चे फिल्मों के रोमांचक दृश्यों को सत्य समझ बैठते हैं, इसलिए उन्हें कल्पना और यथार्थ का भेद बताया जाना बहुत जरूरी है। जैसा व्यवहार हम उनसे चाहते हैं, वैसा हमें अपने आचरण में लाना होगा। एक महत्त्वपूर्ण बात और है कि बच्चे के मित्रों और सहेलियों की जानकारी जरूर होनी चाहिए। निजता के नाम पर कुछ भी करने की स्वतंत्रता उचित नहीं है। स्वच्छंदता और स्वतंत्रता का अंतर स्पष्ट होना चाहिए।
कभी-कभी बिना बताए बच्चे की थोड़ी-बहुत जासूसी भी कर लेने में कोई हर्ज नहीं है। हमारा बच्चा किन लोगों से मिल रहा है, क्या देख रहा है, उसके मित्र कैसे हैं, इसका अनुमान तो होना ही चाहिए। कम से कम इंटरमीडिएट तक तो अवश्य ही। उसके बाद बच्चे कुछ सीमा तक समझदार हो जाते हैं। बच्चे हमारी प्रतिच्छाया ही हैं। अगर कभी किसी बात को लेकर वैचारिक अनबन हो भी जाए, तो चाहे जो भी करें, पर संवादहीनता कभी न होने दें। बालिकाओं और बालकों दोनों को आवश्यक जीवनोपयोगी कार्य भी सिखाएं, चाहे आप कितने भी साधन संपन्न हों।
आजकल सूचना क्रांति ने अनेक नए मार्ग खोल दिए हैं। जीवनयात्रा आपकी संतान को किस देश, किस नगर या किस परिस्थिति में ले जाएगी, यह भविष्य के गर्भ में है। पर इसकी तैयारी हमें ही करवानी होगी। इसलिए बालक हो या बालिका, बिना भेदभाव के घर के छोटे-मोटे काम जैसे हल्का-फुल्का भोजन बनाना, साफ-सफाई आदि अवश्य सिखाए जाने आवश्यक हैं। ये उसको दूसरों के श्रम का महत्त्व भी समझाएंगे और वह घर में काम करने वाले सहयोगियों के प्रति भी उदार दृष्टिकोण बना पाएगा। सहज बुद्धि का विकास होना अच्छा है। निगरानी जरूरी है, पर करके सीखने के परिणाम बेहतर होते हैं। आधुनिकता के नाम पर कोई भी गलत क्रियाकलाप क्यों गलत है, यह बताना उचित है।
आज की पीढ़ी के पास जानकारी बहुत है, पर उसे संभालने का ज्ञान देना होगा। हमारे बच्चे अपने मन की हर बात से बांट सकें, तो उनके गलत मार्ग पर जाने की संभावना बहुत क्षीण हो जाती है। कभी-कभी छोटी गलती को अनदेखा करना बहुत प्रभावी परिणाम देता है। अच्छा कार्य करने पर बच्चों को प्रोत्साहन अवश्य देना चाहिए। ये सारी बातें छोटी होते हुए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। हमारी भावी पीढ़ी को सुसंस्कृत, सभ्य और विचारवान नागरिक बनाना हमारा कर्तव्य है, जिससे विमुख होना एक स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में अवरोधक होगा।
