योगेंद्र माथुर

किसी भी व्यक्ति के संस्कार व चरित्र निर्माण की नींव बाल्यावस्था में ही पड़ जाती है। एक बच्चा अपनी उम्र की आरंभिक अवस्था में जैसा देखता-सुनता और पढ़ता है, उसी से उसका व्यक्तित्व निर्माण और भविष्य निर्धारित होता है। बच्चों के मासूम चेहरे देश के सुंदर भविष्य के द्योतक होते हैं। इसलिए देश के भविष्य को सुंदर और सुखद बनाने के लिए बच्चों का सर्वांगीण विकास आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। व्यक्तित्व निर्माण में अच्छे साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। माता-पिता और गुरु के बाद पुस्तकें और अच्छा साहित्य ही व्यक्ति का श्रेष्ठ मार्गदर्शक होता है।

पहले दादा-दादी, नाना-नानी व घर के अन्य बुजुर्गों द्वारा बच्चों को देवी-देवताओं, राजा-महाराजाओं, पशु-पक्षियों और अन्य पौराणिक-ऐतिहासिक चरित्रों को आधार बनाकर सुनाई जाने वाली कथा-कहानियां शिक्षा का एक अहम अंग हुआ करती थीं जो मनोरंजन के साथ-साथ बच्चों के बौद्धिक, नैतिक और मानसिक विकास में सहायक बनती थीं। बाद में बाल साहित्य ने भी इसमें जगह बना ली। हममें से कई लोग और हमारे पहले और बाद की पीढ़ी के भी कई लोगों ने स्वस्थ बाल साहित्य से काफी कुछ सीखा है।

कथा-कहानियों की कई बाल-पत्रिकाएं और चित्रकथा या कामिक्स पढ़ कर हमें धर्म, विज्ञान, इतिहास और अन्य कई विषयों की जानकारी प्राप्त हुई और कई पौराणिक व ऐतिहासिक चरित्रों के बारे में जानने-समझने का अवसर मिला। जीवन में ज्ञान, बुद्धि, विनय, विवेक, दया, परोपकार, सत्य, सदाचार और अहिंसा जैसे-जैसे उदात्त नैतिक मूल्यों, गुणों, आदर्शों और सिद्धांतों का महत्त्व पता चला और ये हमारे व्यक्तित्व निर्माण या विकास में अत्यंत सहायक बने।

प्राचीन काल के ऋषि-मुनि, धर्मग्रंथकार और नीति निर्धारणकर्ता अत्यंत दूरद्रष्टा थे, जिन्होंने इंसान के मनोविज्ञान को समझकर ही धर्म और नीति के अनुकूल संदेश उन तक पहुंचाने के लिए कथा-कहानियों का सृजन किया। पिछले कुछ समय से स्कूली शिक्षा में जो नवाचार प्रक्रिया अपनाई जाने लगी है, उनमें भी बच्चों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए कथा-कहानियों को एक माध्यम बनाया रहा है।

यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि बच्चों को शिक्षा देने के तरीके मनोरंजक होने चाहिए। मनोचिकित्सकों के अनुसार किसी भी बात को मनोरंजन के जरिए बच्चों के मस्तिष्क में आसानी से पहुंचाया जा सकता है। चित्रकथा इसका अधिक बेहतर माध्यम हो सकती है।

बच्चों को चित्रों के माध्यम से जो जानकारी दी जाती है, उसका प्रभाव उनके मस्तिष्क पर स्थायी छाप छोड़ता है। चित्रकथा देखने-पढ़ने के बाद बालक को अर्थ ग्रहण करने की ऐसी किसी प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता है, जैसा कि उसे किसी कहानी-कथा को सुनने या पढ़ने के बाद उसका अर्थ ग्रहण करने के दौरान गुजरना पड़ता है। इस दृष्टि से बोलते चित्रों का महत्त्व काफी बढ़ जाता है।

यह विडंबना ही है कि आज का बच्चा टेलीविजन और वीडियो गेम की चकाचौंध में गुम होकर रह गया है। स्वस्थ बाल साहित्य से उनका दूर-दूर तक का नाता नजर नहीं आता। टेलीविजन का छोटा परदा हो या मोबाइल, बच्चों के स्वस्थ विकास में सहायक होने के बजाय सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने वाले माध्यम बन कर रह गए हैं।

वर्तमान में छोटे परदे के अधिकांश कार्यक्रम या एनिमेशन फिल्में बच्चों में हिंसा, द्वेष और वैमनस्यता के भाव पैदा कर रही हैं और बच्चों के मन-मस्तिष्क पर आघात पहुंचा रही हैं, जिससे कई सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विकृतियां फैल रही हैं। बच्चों के स्वास्थ्य पर भी गहरा असर पड़ रहा है। इनमें मानवीय संवेदनाओं और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए कोई जगह नजर नहीं आती। यही वजह है कि हमारे देश में बाल अपराधों की संख्या का ग्राफ दिनोंदिन ऊंचा उठता जा रहा है।

हिंसा के साथ-साथ छोटे पर्दे और मोबाइल पर वीडियो फिल्मों आदि में प्रसारित अश्लीलता के ज्वार से किशोरावस्था में पहुंच चुके या पहुंच रहे बच्चों के कोमल मन गहरे से प्रभावित हो रहे हैं और उनकी मानसिकता और संवेदना दूषित हो रही है। यह अश्लीलता और अन्य यौन गतिविधियां उन्हें न केवल लुभाने लगी है, बल्कि कच्ची उम्र में ही वयस्कता के अनुभवों से लैस करने लगा है।

पिछले कुछ वर्षों में किशोरवय बच्चों द्वारा सहपाठी या फिर अन्य मासूम बच्चियों से बलात्कार की घटनाएं भी बढ़ी हैं। ठीक इसी तरह नशे की प्रवृत्ति का विकास हो रहा है और कोमल पौधे पनपने से पहले मुरझा रहे हैं। ऐसे में बच्चों को टेलीविजन और मोबाइल के जरिए फैलाए जा रहे ऐसे सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाने के लिए शिक्षाप्रद बाल साहित्य से जोड़ा जाना नितांत अनिवार्य है। इस विषय में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।