नरपत दान चारण

आज के दौर में लिखने, बोलने यानी अभिव्यक्ति का दायरा बहुत विस्तृत हुआ है। फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट पूरी दुनिया की तीन-चौथाई आबादी के लिए संवाद का मंच है। इसकी अपनी सहूलियतें भी है, जैसे दुनिया को जोड़े रखना, हर खबर से अवगत कराना और अपनी बात दुनिया तक पहुंचाना आदि।

लेकिन विडंबना है कि तमाम सहूलियतों के बीच अभिव्यक्ति के बढ़े दायरे में भाषा के विद्रूप, उसकी अश्लीलता और असभ्यता का बोलबाला इतना विस्तार पा चुका है कि इसे सामाजिक विघटन और नैतिकता के पतन की पराकाष्ठा का बुरा दौर कहें तो शायद अतिश्योक्ति शायद नहीं होगी।

यह स्वीकार करना होगा कि आज हम उस बुरे दौर में हैं, जिसका आकलन कोई नहीं कर रहा या करना नहीं चाहता। कोई किसी को कुछ भी बोले जा रहा है। हम उस दौर में आ गए है जहां देश की शान कहलाने वाले क्रिकेटर की चार वर्षीय बेटी से बलात्कार की धमकी भरी पोस्ट फेसुबक पर करोड़ों लोगों के सामने बिना डरे लिख दी जाती है और नीति-नियंता और सियासतदान तमाशबीन बने रहते है।

विडंबना है कि ऐसे मुद्दे कभी चर्चा का विषय नहीं बनते। आए दिन सोशल मीडिया पर राजनेता, अभिनेता, अभिनेत्री या किसी से संबंधित कोई पोस्ट होती है, तो उसकी टिप्पणियों में ऐसी बातें दर्ज होती हैं, जिनकी भाषा विद्रूप, अश्लीलता, असभ्यता में डूबी हुई इतनी सड़ांध मारती है कि टिप्पणीकर्ता के इंसान होने पर ही शंका हो जाती है।

इस सबका सार्वजनिक मंच पर प्रदर्शन होना समाज के बीच के लोगों के ही चरित्र का उद्घाटन होता है। किसी महिला पर अश्लील टिप्पणी, किसी बच्ची के बलात्कार जैसी बातें, धर्म जाति को लेकर ओछी बातें, भद्दी गालियां, किसी सार्वजनिक हस्ती की मृत्यु पर अट्टहास और किसी की मृत्यु की कामना।

ऐसी टिप्पणियां देखने के बाद विचार कौंधता है कि क्या है यह सब? क्या ऐसा करने वाले सामाजिकता के दायरे में कहे जा सकते हैं? कहां से सीखते हैं ऐसी नैतिकता? क्या हमारे पास इन सवालों के जवाब हैं? हद यह कि जो कुछ सभ्य लोग या जो जिम्मेदार मौजूद हैं, वे उन्हें ‘ट्रोलर’ बता कर आंखे मूंद लेते हैं।

क्या सरकार के नुमाइंदों या शासन-प्रशासन को ऐसी नकारात्मकता के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं करनी चाहिए? अभिव्यक्ति के नाम पर क्या-क्या चलेगा? गौर करना होगा कि ‘ट्रोल’ कोई आम शब्द नहीं है। असल में ये ‘ट्रोलर’ कुंठित और विकृत मानसिकता के शिकार लोगों का समुदाय हैं, जो किसी मुद्दे पर चल रही चर्चा में कूद कर आक्रामक और अनर्गल प्रतिक्रिया देते हैं।

ये असामाजिक तत्त्व हैं, जो अपनी मानसिक विकृति और फूहड़पन का बेहिचक प्रदर्शन करते हैं। ये समाज में कोई खास हैसियत नहीं रखते। ऐसे लोग समाज में अपना वजूद साबित नहीं कर पाते। बल्कि इनमें से कई आपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं और सामाजिक उपेक्षा के शिकार भी, जो अपनी मौजूदगी का आभास कराने के लिए लोगों को भद्दी गालियां देते हैं।

ऐसे लोगों की हरकतों के बाद अभिव्यक्ति की आजादी पर तानाशाह ईदी अमीन का कथन भी एक पल के लिए उचित लगने लगता है, जिसमें कहा गया था कि ‘अभिव्यक्ति की आजादी वहां खत्म हो जाती है, जहां से आपराधिक कानून शुरू हो जाता है।’

अब विद्रूप अभिव्यक्ति के बाद हमें जिम्मेदारों से सवाल तो करना होगा कि सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति के लिए कोई नियम-कायदे क्यों नहीं होने चाहिए! क्या अभिव्यक्ति की आजादी का गलत उपयोग होने पर भी इस आजादी के पुनरावलोकन को लेकर आंख कान बंद कर लेना ही ठीक है? क्या अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हमें समाज को दूषित और अपराधी बनते रहना देना चाहिए?
सवाल बहुत से हैं, लेकिन यहां जरूरत जवाब तलाशने की है।

खैर, तमाम बातों के बीच मेरी गुजारिश उन सबसे है, जो सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर मौजूद हैं। हो सकता है हम किसी दूसरे के विचारों से इत्तिफाक न रखते हों… हो सकता है कि हमें कोई पोस्ट अपनी विचारधारा के विपरीत लगे, तो हम उसकी प्रतिक्रिया में सभ्य तरीके से सभ्य भाषा में जवाब दे सकते हैं।

इसके लिए अपनी ओछी मानसिकता का प्रदर्शन करने की जरूरत कतई नहीं है। किसी बात पर अनर्गल गाली-गलौज कर विवाद खड़ा करना हमारी ही मनोदशा और चरित्र को दर्शाता है। इसके साथ ही मेरी राय है कि ऐसी स्थिति में सोशल मीडिया का इस्तेमाल सीमित तरीके से करना ही उचित है। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और जातिवादी कट्टरता से संबंधित मंचों में शामिल न हों और न ही ऐसी किसी पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दें। यही बेहतर है। अन्यथा हम भी ऐसे ही विकृत मानसिक उन्माद का शिकार हो जाएंगे या फिर एक विकृत उन्मादी बन जाएंगे।