प्रभात कुमार
कभी किसी को तुम कह कर नहीं पुकारा, तो अपनी माटी को क्यों पुकारें। आपकी खैरियत पूछने से ही अपनी बात शुरू करता हूं। मेरे देश, आपका क्या हाल है? थोड़ा तो शायद जानता हूं, पर दिल से पूछो तो यहां सब कुशल नहीं है। निश्चय ही इसमें दुनिया भर में आ रहे बदलावों का असर शामिल है। शासकों और प्रशासकों से पूछेंगे तो बताएंगे, सब नियंत्रण में है। हमारी रंग-बिरंगी संस्कृति को ताकत कहा जाता रहा है, निस्संदेह यह ताकत अब भी बनी मानी जाती है और इसके बलबूते ही हमने बहुत तरक्की की है।
मगर क्या इतने रंग वास्तव में हमारी ताकत हैं? कई मामलों में लगता है कि यह विविधता ही हमारी राष्ट्रीय परेशानियों में विविधता लाती है। हमने संसार में प्रगति के कितने ही नए और अनूठे कीर्तिमान रचे हैं। देश के अपने प्रांगण में निजी ही नहीं, सामूहिक तौर पर भी सफलताओं के अंबार लगा दिए हैं। देश की बहुमुखी प्रतिभाओं ने दुनिया के हर कोने में भारतीय बुद्धि का परचम लहराया है। देश की सीमाओं पर हमारे जांबाज रणबांकुरों ने दुश्मन को निरंतर मुंहतोड़ जवाब देकर देश को सुरक्षित रखा है। मगर ऐसा नहीं कि हमने ही तरक्की की है। सफलता का रास्ता पूरी दुनिया में एक-दूसरे से सीख कर, प्रेरित होकर, प्रयोग कर ही खुलता है।
हम जब भी प्रगति के मीनार बनाते हैं, तो आनंद मनाते हुए शोभा बढ़ाऊ, मनचाहे आंकड़े पकाने में व्यस्त हो जाते हैं, लेकिन अति भावुक होकर देश के आगे बढ़ने के आंकड़े जुटाते समय यह अक्सर अनदेखा करते हैं कि विकास के रास्ते से होकर कितना विनाश भी हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में हमारी खुली आंखों के सामने, सहजता से घुसपैठ कर गया है। हमें इन बदलावों के बारे में पता होता है, लेकिन जोर-शोर से अनदेखा करते हैं।
हमारे अधिकांश सामाजिक, धार्मिक, व्यावसायिक और राजनीतिक नायकों ने अपनी योजनाओं को फायदा पहुंचाते नारों और विज्ञापनों का झंडा लहराया। विकास और विनाश का फर्क मिटा दिया। इन सभी ने उन अनेक पक्षों को अनदेखा किया, जो आज हमारी बड़ी कमजोरियां बन चुके हैं। आज देश के हर राजनीतिक खेत में क्षेत्रवाद, धर्मवाद, वैमनस्य की फसलें खूब उगाई जा रही हैं। जातिवाद की दीमक ने हमारी लोकतांत्रिक इमारत खोखली कर दी है। मगर हम उसी पर खतरनाक इरादों का चमकीला सनमाइका चिपका कर कह रहे हैं कि जात-पांत में कोई विश्वास नहीं करता, यह अब कोई मुद्दा नहीं है।
व्यक्तिगत प्रगति की चकाचौंध में सामूहिकता नष्ट हो रही है। संयुक्त परिवार हमारे देश की अनूठी परंपरा रही है, आज जहां अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश इस शैली को अपनाने लगे हैं, हमने संयुक्त परिवार शैली को ही नहीं, एकल परिवार शैली का स्तर भी गिरा दिया है। वैवाहिक जीवन में अलगाव उग रहा है, जिसे संतुष्टि गले लगा रही है। भौतिक नजरिए के कारण आपसी समझ की दुविधाएं रोजाना बढ़ती जा रही हैं।
मेरी प्रिय माटी, कुदरत ने आपको जीभर कर सजाया, लेकिन पर्यावरण के क्षेत्र में हमने विनाश की ओर ज्यादा ध्यान दिया है। पर्यावरण संबंधी दो सौ से ज्यादा कानून होते हुए प्रशासन अब भी पंगु बना रहता है। उद्योगपति कानून को जेब में लेकर बेशर्मी भरी मनमानी करते हैं। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के अनुशासन के कारण रोकी गई तथाकथित विकास की कितनी ही परियोजनाएं कानून का पेंच लड़ा कर पुन शुरू करा दी जाती हैं। मां समान मानी जाने वाली नदियों की दयनीय हालत इसका ज्वलंत उदाहरण है। हमारे प्रशासन ने करोड़ों रुपए बहा दिए, लेकिन वे अभी तक साफ नहीं हुई कि उसे वास्तव में स्वच्छ कह सकें।
यह अब राज नहीं कि पिछले कई दशकों से सिर्फ कागजों में जंगल खड़ा कर देने की परंपरा बड़ी समझदारी और तल्लीनता से अब भी निभाई जा रही है। एक तरफ करोड़पतियों की संख्या बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ बेरोजगारी और भूख के आंकड़े बढ़ रहे हैं। अब यहां कोई शर्म से मरने वाला नहीं बचा, बल्कि निर्भया कांड के बाद बने सख्त कानूनों को किनारे रख दुष्कर्म करने वाले अधिक निर्भय हो चले हैं। बहुत हैरान परेशान हंू कि एक तरफ देश डिजिटल किया जा रहा है और यूट्यूब से प्रेरित होकर नाबालिग तीन साल तक की बच्चियों के शरीर से खेल रहे हैं।
सामूहिक मनोरंजन के नाम पर सामूहिक दुष्कर्म हो रहा है। किसी भी किस्म के बुरे परिणामों से डरना तो देशवासी भूलते जा रहे हैं। क्या देश में सही शिक्षा, उचित संस्कार खत्म हो चुके हैं। तैंतीस करोड़ देवताओं के देश में क्या क्या हो रहा है। मेरी धरती अपनों की ही गुस्ताखियों की शिकार हो रही है, हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं? अब वक्त आ गया है कि हम उन्नति की तेज धूप में नैतिक अवनति और दूसरे नुकसानों का भी ईमानदार आकलन करें।