प्रभात कुमार
पिछले करीब डेढ़ साल के दौरान दुनिया ने जीवन के कई नए रंग देखे। जिन केंद्रों से आपसी दूरी घटाने के जद्दोजहद कम करने की सलाह दी जाती थी, उसकी जगह एक खास दूरी बनाए रखना वक्त की जरूरत के तौर पर देखा गया। हालांकि यह दूरी शारीरिक स्तर पर बरतने की हिदायत है, लेकिन कैसे वह अपने अंग्रेजी अर्थ में सामाजिक दूरी में तब्दील होती गई, पता नहीं चला।दरअसल, इस दूरी को बनाए रखने के संदर्भ में दो शब्द ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ प्रयोग किए जा रहे हैं। ऐसा लगता है जब इन शब्दों को नियमों के प्रारूप में शामिल किया गया तो इसका उचित अर्थ समझने का समय नहीं मिला। हमने हिंदी में इसका अनुवाद ‘सामाजिक दूरी’ अपना लिया। मौजूदा दौर की महामारी की लहर के रूप में दो सामाजिक आगमन और उनकी विदाई मानी जा चुकी है, हालांकि तीसरी लहर की बातें हो रही हैं। इससे बचने के लिए दिए गए करोड़ों रुपए के विज्ञापनों और हिदायतों में सामाजिक दूरी बनाए रखने की संजीदा सलाह दी जाती रही है।
ऐसा लग रहा है कि इतनी ज्यादा मात्रा में सलाह मान कर सामाजिक दूरी वास्तव में बढ़ रही है। ईमानदारी से जांचा जाए तो समाज में जमीनी स्तर पर दूरियां बढ़ती दिख रही हैं। वर्तमान समय की बहुप्रचारित और एक बड़े दायरे में पहुंच वाली किताब ‘फेसबुक’ से संबंधित खबरें यह बताती हैं कि महामारी आने के बाद नफरत, हिंसा और दबंगई तीन गुणा बढ़ चुकी है। यह माना जा सकता है कि व्यावहारिक अवनति में इन शब्दों यानी ‘सामाजिक दूरी’ का सीधा हाथ नहीं, लेकिन किसी ने अभी तक यह विचार नहीं किया कि जो शब्द करोड़ों बार प्रयोग किए जा चुके हैं, वे वास्तव में अव्यावहारिक हैं। क्या इतने लंबे समय से सामाजिक दूरी बनाए रखने की सलाह देकर हम सचमुच सही या उचित काम कर रहे हैं? यह बात अलग है कि राजनीति और धर्म से जुड़े लोगों को किसी भी किस्म की दूरी नहीं सुहाती। असली दोषी आम लोग माने जाते हैं, जिनका सब्जी खरीदते हुए, बतियाते हुए या एक दूसरे के पास खड़े हुए मिले तो गलत माना जाता है और कुछ जगहों पर नियमों को तोड़ने के एवज जुर्माना भी वसूला जाता है।
इतिहास गवाह रहा है कि हमने जात-पात, धर्म, क्षेत्र, वैचारिक और राजनीतिक मतभेद का इस्तेमाल कर सामाजिक दूरी तो पहले से ही बहुत बनाई हुई है। सामाजिक दूरी को दिमाग में पकाया जाता है और फिर नाप-तोल कर व्यवहार में परोसा जाता है। इसे मानसिक या वैचारिक दूरी भी कह सकते हैं, जिसे दो गज तो क्या, किसी भी माप में नहीं रख सकते। इसे अनुभव किया या कराया जा सकता है, जो हम दशकों से करते भी रहे हैं। इंसान को सामाजिक प्राणी कहा गया है। रहस्यमय विषाणु ने खुद को बहुत समझदार मानने वाले इस ‘सामाजिक प्राणी’ को अच्छी तरह से उसकी सीमा बताई है। अगर मानवीय जीवन में इंसानियत और सामान्य समझदारी का सहज प्रयोग किया गया होता तो इतनी सामाजिक दूरियां बढ़ती ही नहीं। यह सब मानसिक दूरी की मिसाल है कि महामारी के विकट समय के दौरान उपचार पद्धतियों पर बेमानी बहस होती रही, लेकिन स्थायी रूप से उचित स्वास्थ्य संरचना उपलब्ध करवाने के बारे में कोई संजीदगी से बात करने को तैयार नहीं हुआ। क्या मतभेद इतने गहरे वैचारिक या व्यक्तिगत हैं कि उचित व्यवस्था का स्वस्थ विकास नहीं हो पाता। आम लोग पहले से निढाल होते हैं। वे कुछ कर नहीं पाते। कुछ करते भी हैं तो कोई उसकी सुनता नहीं। तकनीक को इतना ओढ़ने के बाद भी आपसी दूरियां कम नहीं हो पार्इं, बल्कि बढ़ती ही गर्इं। सच अभी भी परेशान है और समाज अफवाहों के हवाले रहता है।
सच यह है कि महामारी के संक्रमण से बचने के नियमों के अनुसार दो गज की शारीरिक दूरी बनाए रखने की जरूरत हो सकती है। यह अलग बात है कि छह फुट की दूरी बनाए रखना ही व्यावहारिक समस्या नहीं है, बल्कि जनसंख्या, बाजारों और सार्वजनिक स्थानों पर कम जगह का उपलब्ध होना भी है। हमारी बिगड़ी हुई आदतें भी इस संबंध में सहयोगी हैं। हमारे ज्यादातर सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक नायक आम जनता के प्रेरणास्रोत बनते हैं, लेकिन यह दूरी बरतने में उनका प्रदर्शन कुछ अलग है। महामारी कमजोर पड़ने के बाद भी संक्रमण से बचने के लिए स्थिति के अनुसार जरूरत के मुताबिक शारीरिक दूरी बनाए रखने का आग्रह हो संभव है लोग उचित शब्दों का सही अर्थ लेते हुए ज्यादा प्रेरित होंगे। आज हमें सामाजिक दूरी बनाए रखने की नहीं, बल्कि सामाजिक और मानसिक दूरियां कम करने की ज्यादा जरूरत है। निश्चय ही सकारात्मक प्रयासों से हमें सफलता मिल सकती है और उम्मीद की जा सकती है कि कम होती सामाजिक दूरी के साथ साथ दूसरी कई अनुचित दूरियां भी कम हो पाएंगी। यों भी संकट और परेशानी के समय हमें एक दूसरे की जरूरत पड़ती है। वास्तव में हमारी मुश्किलों या बीमारी के समय अगर कोई अपना हमारे पास आता है तो हमारी परेशानी अपने आप ही आधी रह जाती है।