रसोई में तवे पर रोटी पलटते हुए भौजी ने खाने के लिए आवाज लगाई। ऊपर टट्टर से नीचे झांकते हुए मैंने देखा, भौजी के हाथ तत्परता से रोटी बना रहे थे। संकरी और ऊंची-ऊंची सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए मैंने उन्हें कहा- ‘आप रुकिए, आज मैं बनाती हूं।’ उन्होंने कहा- ‘ना, जब तलक हाथ चलेंगे, मैं ही खिलाऊंगी। आप तो थाली लो। गरम खाओ, तवे से उतरती।’ भौजी ने ठेठ राजस्थानी गट्टे और कैर कुमटिया बनाए थे। खाना खाते हुए मैंने मजाक में कहा- ‘आज तक कितनी रोटियां बनाई होंगी आपने? आपकी शादी तो चौदह साल की उम्र में हो गई थी न! अब आप कितने की?’ सहज भाव से भौजी ने जवाब दिया- ‘फाल्गुन में पैंसठ की हो जाऊंगी। जब ब्याह कर आई, तब सास थी नहीं। घर में ससुर, तीन देवर, दो ननदें। कुल मिला कर आठ सदस्य। ब्याह के अगले दिन से रोटी का मोर्चा संभाला।’ मजाक में ही हम दोनों ने गिनना शुरू किया। हम हंसते-हंसते उनकी शादी के बाद से गिनती में लगभग तीन लाख से अधिक रोटियों तक पहुंचे। लोग आते-जाते रहे, पर वे वहीं थीं बदस्तूर। कभी-कभार बाहर गर्इं या बीमार हुर्इं तो यह क्रम टूटा। चौदह वर्ष की उम्र से लेकर अब तक यानी इक्यावन साल में वे इतनी रोटियां बना चुकी हैं कि गिनती हो ही न पाए!
लेकिन अपने इस श्रम की उन्हें परवाह नहीं। वे खुश हैं सबको ‘जीमा’ कर यानी खाना खिला कर। दरअसल, स्त्री के जीवन का जरूरी पहलू है अनुत्पादक श्रम। और इसकी पहचान केवल इस रूप में होती है कि हर घरेलू औरत जो दिन-रात घर के काम में जुटी रहती है। वे अक्सर सुनती हैं- ‘क्या करती हो दिन भर?’ अब वे क्या जवाब दें! कपड़े धोए थे, फिर पहने, गंदे हुए। झाड़ू लगाया, फिर घर में कूड़ा आ गया। मुड़-मुड़ कर वही बरतन मांजना उनकी नियति है। कहने को भोजन सबकी आवश्यकता है, पर घर का चूल्हा-चौका केवल ‘घरनी’ का ही होता है और मालिक कोई और। कभी-कभार उन्हें अन्नपूर्णा कह कर अवश्य संबोधित कर लिया जाए, पर स्त्री द्वारा निरंतर किए जाने वाले इस श्रम की कोई पहचान नहीं। रोटियों के इस गणित के बरक्स एक तर्क यह भी रखा जा सकता है। पूरी जिंदगी भर हम जो कार्य नित्य क्रम में करते हैं, कुल मिला कर उनकी संख्या विराट ही होती है। मसलन, आजीवन हम कितनी बार सांस लेते हैं या कितने कदम चलते हैं! लेकिन यह काम हम व्यक्तिगत रूप से केवल अपने लिए करते हैं। दूसरों के लिए किया जाने वाला अनुत्पादक श्रम इससे भिन्न है, जो स्त्री जीवन की नियति है।
स्त्री के केवल घरेलू श्रम ही नहीं, उसके द्वारा सृजित विविध कला-रूपों के साथ भी यही बर्ताव होता रहा है। अभी कुछ दिन पहले दिल्ली से अलवर जाते हुए राजमार्ग बाधित होने कारण गांवों की ओर से घूम कर जाना पड़ा। खेतों के पास वाले रास्ते से गुजरते हुए बिटौडे यानी गोबर के उपले रखने वाली छोटी-छोटी बंद कुटियानुमा संरचनाओं पर हाथों की कारीगरी के खूबसूरत नमूने देख कर मैं मुग्ध हो गई। उंगलियों के ब्रश से खूबसूरत ज्योमेट्रिकल-आकृतियां, फूल-पत्ते उकेरे गए थे। सचमुच स्त्री की सौंदर्यवादी अभिरुचि का जवाब नहीं। उन आकृतियों को मिट्टी की भीत पर देख कर मैं सोच रही थी कि अगर इन्हें खूबसूरत फ्रेम में मढ़ कर किसी कला दीर्घा में सजा दिया जाए तो?
स्त्री कला रूपों में कुछ को पहचान मिल पाई है, पर अधिकतर वे स्वांत: सुखाय रचनाएं हैं जो घरों तक ही सीमित हैं। करवा चौथ-अहोई, विवाह-जन्मदिन पर बनाए जाने वाले विविध आरेखन, मांडने ऐपन और पूरे गए चौक, जिनमें प्रकृति और मनुष्य, चांद और सूरज, मोर और तोते, वृक्ष और तरह-तरह के फूल एक साथ मौजूद होते हैं- स्त्री के निजी जीवन और सामूहिकता दोनों का समवाय है। मनाए जाने वाले विविध त्योहारों के दौरान बनाई गई ये रचनाएं, जिन्हें ‘लिखना’ भी कहा जाता है, त्योहार और स्त्री की आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन है। सांझी से लेकर पूजा के लिए गढ़ी जाने वाली मूर्तियां तक इस सृजनात्मकता के अक्षय स्रोत हैं। वर्तमान समय में इनकी जगह बाजार में बिकने वाले रंग-बिरंगे कैलेंडरों ने ले ली है, जिससे सामूहिकता में रची जाने वाली इन कलाओं की मूल आत्मा और मौलिकता दोनों का ह्रास हुआ है। मगर अब भी ये हैं और यह जरूरी भी है कि इनकी मौलिकता बनी रहे, जिसके लिए इस श्रम के सौंदर्यबोध को पहचानना भी उतना ही जरूरी है। यह स्त्री जीवन का वह अनिवार्य पहलू है, जिसका बोध खुद स्त्री को भी होना जरूरी है, अन्यथा बरसों की सामाजिक संरचना ने उसे जिस घेरे में बांधा है, उसके अंतर्गत इस अनुत्पादक श्रम को कभी-कभार महिमामंडित अवश्य कर दिया जाए, उसका उचित मोल नहीं आंका जाता।