देवयानी भारद्वाज

सुबह की सैर के दौरान पार्क में निगाह उठी तो पाया एक जगह खड़े तीन पुरुष मेरी ओर देख रहे हैं। मुझे और तीन-चार बार इसी राह से गुजरना था। अब हर बार देखे जाने की आशंका थी। मैंने खुद को वस्तु में तब्दील होते महसूस किया। पहली बार मेरी नजर अनायास उठी थी। अगर दोबारा देखूं तो गलत समझ लिए जाने की आशंका थी। जबकि वे संभव है कि गलत समझ लिए जाने को प्रस्तुत हों। यह वह मामूली हिंसा है, जिसे स्त्री आजीवन झेलती है। वस्तु की तरह देखे जाने और धीरे-धीरे वस्तु में सिमटते जाने की हिंसा।

कुछ दिन पहले छोटे बेटे ने बताया कि वह इन दिनों पीछे की गली में खेलने जाता है, क्योंकि उसके एक दोस्त को उस गली में रहने वाली एक लड़की अच्छी लगती है। हालांकि उस गली में लड़कियां उनके साथ अच्छी तरह पेश नहीं आतीं। बड़े बेटे ने भी सात-आठ बरस पहले ऐसे अनुभव साझा किए थे, जब मोहल्ले में दोस्त एक लड़की की झलक के लिए उसके घर के सामने साइकिल चलाने जाते थे। उस दिन हमने इन सवालों के इर्द-गिर्द बात की कि ‘तुम्हारा दोस्त जिस लड़की को पसंद करता है, क्या उसने उसे बताया है? क्या वह लड़की तुम्हारे दोस्त को पसंद करती है? क्या तुम्हें यह अच्छा लगेगा कि कोई तुम्हें पसंद करता है, इसलिए तुम्हें देखा करे?’

इस पर भी बात हुई कि कैसे किशोर होती लड़कियां मोहल्ले में खेलने के लिए निकलना बंद कर देती हैं, जबकि लड़के उनके घर का चक्कर लगाने के बाद गली-मोहल्ले में उनका पीछा करने लगते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब ये बातें छेड़छाड़ में बदलने लगती हैं। यह बातचीत ऐसे हुई कि उसे भरोसा रहे कि उसके दोस्त को गलत नहीं समझा जा रहा है, उसे दोस्ती तोड़ने को नहीं कहा जाएगा। बल्कि हो सके तो दोस्त से बात करने और न हो सके तो उन कामों में शामिल नहीं होने के लिए कहा जा रहा है जो किसी की निजता का उल्लंघन हैं। बच्चों में चीजों को देखने का नजरिया धीरे-धीरे विकसित होता है। तेरह साल की उम्र तक इस बच्चे ने कुछ ऐसा सीखा था कि उसे इस व्यवहार पर बात करने की जरूरत महसूस हुई थी।

इस घटना के जिक्र पर मेरी एक दोस्त ने कहा- ‘तुम कहीं बच्चे को असहज तो नहीं कर रही हो? इस उम्र में तो लड़के-लड़कियां एक-दूसरे को देखते ही हैं।’ मुझे इस देखने में समानता नहीं दिखती। बल्कि हमारे समाजीकरण में कुछ ऐसा है कि लड़कियां खुद भी अपने आप को वस्तु के रूप में पेश करने लगती हैं, जबकि लड़के एक तरह के अधिकार के साथ किसी लड़की पर निगाह डालते हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे व्यवहारों की झलक मिलती है। युवा होती लड़कियां फेसबुक या इंस्टाग्राम पर सज-संवर कर ‘पाउट’ बनाती तस्वीरें डालती हैं, जबकि लड़के दोस्तों के साथ घुमक्कड़ी, खेल या अन्य गतिविधियों के बारे में लिखते हैं, तस्वीरें लगाते हैं। मानो लड़कियां लोगों के अनुमोदन के लिए खुद को पेश कर रही हों और लड़के बाहर की दुनिया के लिए तैयार मर्द। मैंने यह भी पाया कि बड़े बेटे के साथ कम उम्र में हुए ऐसे संवाद ने उसे असहज नहीं किया, बल्कि लड़कों के अलावा लड़कियों के साथ भी वह एक बेहतर दोस्त और उनका राजदार भी रहा।

जिन समाजों में नजर मिलने पर लोग स्वाभाविक तौर पर मुस्करा कर अभिवादन करते हैं, वहां शायद स्त्री हर समय खुद को वस्तु में समेटे जाते महसूस न करती हो। जहां ‘हंसी तो फंसी’ का मुहावरा चलन में हो, वहां आजीवन देह पर रेंगती निगाहों को नजरअंदाज कर खुद पर भरोसा बनाए रखना होता है। दुनिया में ऐसा कोई मुल्क नहीं है जहां औरतों के खिलाफ हिंसा और बलात्कार नहीं होते, लेकिन संभव है दुनिया के कुछ हिस्सों में अदालतें और समाज इस तरह के प्रकरणों में स्त्री के वस्त्र, बलात्कार के समय और जगह पर बात कर उसके चरित्र का विश्लेषण न करते हों। सहमति और असहमति पर बात तो वहां भी होती होगी, लेकिन सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गड़बड़ी नहीं की जाती होगी, लड़कियों को जिंदा नहीं जलाया जाता होगा, बलात्कारी विधायकों और गुरुओं के समर्थन में सड़कों पर प्रदर्शन नहीं किए जाते होंगे। अदालतें बलात्कारी की ‘शैक्षिक प्रतिभा’ को जमानत का आधार नहीं बनाती होंगी, पत्नी की असहमति के बावजूद सेक्स को पति का अधिकार नहीं बताती होंगी।

तो क्या मैं यह कहना चाहती हूं कि पुरुष को स्त्री की ओर कामना की निगाह से देखना ही नहीं चाहिए? नहीं, मैं यह कहना चाहती हूं कि पुरुष को भी स्त्री के लिए उसी तरह काम्य होना चाहिए, स्त्री को भी उतना ही निर्द्वंद्व पुरुष को देख पाने की सामाजिकता होनी चाहिए। समाज में ऐसे पुरुष तैयार हों जो स्त्रियों की निजता का सम्मान कर सकें। उसके लिए सही समय पर लड़कों के साथ संवाद कीजिए। रोजाना घर में और सड़क पर होने वाली छोटी-छोटी हिंसा को समझिए, उसका प्रतिकार कीजिए। लड़कों और लड़कियों के बीच प्यार को ‘जिहाद’ का नाम मत दीजिए, प्यार को प्यार ही रहने दीजिए। सड़क चलती स्त्री की निजता का सम्मान करना सीखिए। अपने बच्चों को यह जरूर बताइए कि वे कौन-से व्यवहार हैं जो प्यार नहीं हैं और किसी की निजता का उल्लंघन करते हैं। यकीन मानिए हम मिल-जुल कर एक बेहतर समाज बना सकेंगे।