नरपतदान चारण

हाल ही चेन्नई में यौन उत्पीड़न की शिकार एक लड़की ने खुदकुशी का तकलीफदेह कदम उठा लिया। आत्महत्या नोट में उसने लिखा- ‘लड़की केवल मां के गर्भ और श्मशान में ही सुरक्षित है। हर माता-पिता को अपने बेटों को लड़कियों का सम्मान करना सिखाना चाहिए।’ उस बच्ची की ये बातें किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर देने के लिए काफी हैं और हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं।

ऐसी घटनाओं से कई तथ्य सामने आते हैं। पहला, समाज में महिलाओं के प्रति इज्जत, गरिमा और सम्मान के पैमाने में गिरावट हुई है। दूसरा, महिला अत्याचारों को लेकर सख्त कानून बने हैं, लेकिन अपराधवृत्ति घटने के बजाय बढ़ रही है, क्योंकि कानून अपराधी को सजा दे सकता है, लेकिन अपराध रोकने में कारगर नहीं है। तीसरा, शिक्षा की व्यापकता के बजाय सामाजिक नैतिकता का नितांत अभाव है। और इन सबके मूल में है आदर्श नैतिक चरित्र की मानसिकता का विकसित न होना।

सामाजिक पहलू पर बात करते हुए अगर महिलाओं के लिए हीन दृष्टिकोण की तह तक जाएं तो पता चलता है कि लड़कियों के शारीरिक, मानसिक उत्पीड़न- मसलन छेड़छाड़, भद्दी टिप्पणियां, बलात्कार आदि का पहला, गौण और प्रमुख कारण स्त्री-विरोधी घटिया, वासना वशीभूत संकुचित मानसिकता है। दरअसल, न समस्या लिंगभेद के कारण है, न समस्या हार्मोनों में है और न ही समस्या सभ्यता और संस्कृति की है। समस्या सोच की है।

यह उस समाज की मानसिकता में है, जो समझता है कि स्त्रियां उसके पुरुषार्थ और वासना के उपयोग का साधन मात्र हैं। और इसके लिए वह बाकी चीजें सभ्यता और संस्कृति के नाम पर नियंत्रित करता है। आजकल मानसिक रूप से बीमार कुछ ऐसे लोगों की जमात पैदा हो गई है, जो तहजीब से बिगड़े हुए होते हैं और अपनी निहायत घटिया सोच और हरकतों से महिलाओं की गरिमा के खिलाफ अपराध कर समाज में अराजकता और असभ्यता का जहर फैलाने का काम करते हैं।

महिलाओं के प्रति गंदी सोच की उत्पत्ति ‘पहनावे’ के नाम पर आपराधिक वृत्तियों के बचाव से शुरू होती है। कोई भी लड़की या महिला कैसे भी कपड़े पहने, यह उसका निजी अधिकार है। लेकिन कोई राह चलते उस पर फब्तियां कसे, बुरी नजर से देखे, उससे बलात्कार करे, इस बिगड़ी सभ्यता का अधिकार उसने कहां से हासिल किया? जो लोग साड़ी या खुद को ढकने वाले पूरे वस्त्र पहनने की दुहाई देते हैं, वे भी अपने मानसिक दिवालियेपन का शिकार हैं। क्या जो महिलाएं साड़ी पहनती हैं, उनके खिलाफ यौन अपराध नहीं होता? जिन मासूम बच्चियों का शोषण होता हैं, क्या उन्हें साड़ी पहनाने से बलात्कार रुक जाएंगे?

दरअसल, ये सब मुद्दे से भटकाने वाली बचकानी और गैर-जिम्मेदाराना बातें हैं। पुरुषों को अपनी आंखों में भी कुछ शर्म बचा कर रखना चाहिए। लड़कियां आंखें गड़ा कर देखने या फब्तियां कसने या यौन उपभोग की चीज नहीं हैं। अगर बात पहनावे की है तो जब कोई पुरुष अपना शरीर दिखाने वाले कपड़े पहने सड़क या पार्क में टहल रहा होता है, तो कभी किसी भली महिला ने उसे पायजामा पहनने की हिदायत दी? उस पर टिप्पणी की? उससे छेड़छाड़ की? फिर असभ्य लोग अपनी सोच में क्यों गंदगी भरे रहते हैं? यह आम बात बिल्कुल नहीं है। वहीं टीवी धारावाहिकों या फिल्मों में परोसी जाने वाली अश्लीलता के पीछे भी निर्माता लोगों की सोच ही होती है, लेकिन उस फिल्म या धारावाहिक से आम लोग क्या ग्रहण करते हैं? केवल मनोरंजन या अश्लीलता, यह आपकी सोच का स्तर तय करता है।

यह बेहद चिंतनीय बात है कि लोगों की गंदी जहरीली सोच कितनी ही लड़कियों के सपने दम तोड़ने का कारण बनती हैं। देश की हर लड़की ने अपने माता-पिता के मुंह से एक बार ‘खराब माहौल’ का नाम जरूर सुना होगा। मगर सवाल फिर वही है कि ऐसा खराब माहौल बनाता कौन है? हर लड़की के भीतर उसके हजारों सपने और उन सपनों के आड़े आ रही बाधाएं उसे कचोटती रहती हैं, क्योंकि बाहर ‘माहौल खराब’ है। हर लड़की को राह चलते समय हर पल अपने ऊपर बेइज्जती का कीचड़ उछलने का डर सताता रहता है। कारण तो स्पष्ट ही है कि ‘अश्लील और गंदी सोच’ ने माहौल खराब किया है।

अगर कोई राह चलती किसी लड़की पर टीका-टिप्पणी न करे, उसे बुरी नजर से न देखे, छेड़छाड़ न करे, बल्कि उससे इज्जत से पेश आए, उसकी निजता और इज्जत का सम्मान करे, तो माहौल बदलने में देर नहीं लगेगी। किसी भी समाज की स्थिति का कारण उस समाज के लोग होते हैं। तो हमारे समाज की दुर्दशा का कारण भी हम लोग ही हैं। हर परिवार को अपने बच्चों को नैतिक चरित्र और संस्कारों की सीख देने के साथ ही लैंगिक भेदभाव न करने की सख्त हिदायत देनी चाहिए। उसके लिए हमें अपने दिमाग से दूषित विचारों को साफ करना होगा। जब तक मानसिकता में बदलाव नहीं आएगा, तब तक महिला सशक्तिकरण की बात भी अधूरी रहेगी। सोच बदलिए, समाज बदलिए।