श्रुति शर्मा

स्कूलों में शिक्षकों के बर्ताव को लेकर हम सबने बहुत कुछ पढ़ा है, इस पर बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन घर में अपने ही बच्चों के साथ हमारा बर्ताव कैसा होता है और वह कितना गलत है या सही है, इस पर हम सोचने की जरूरत नहीं समझते। बच्चों को सिर्फ जन्म देने भर से माता-पिता का दायित्व खत्म नहीं हो जाता, बल्कि इसके साथ ही शुरू होता है। बच्चों के साथ पूरी जिंदगी जूझना पड़ता है। जीवन के हर उन पहलुओं को अनुभव करके सीखना होता है जो हम सबको किसी किताब को पढ़ कर नहीं मिल सकते।

बच्चों की इच्छा के विरुद्ध कोई भी काम उनसे करवाना उनके साथ नाइंसाफी है। ऐसे बहुत से घर देखे जा सकते हैं, जहां घर के बड़ों ने बच्चों की इच्छाओं से ज्यादा अहमियत घर की साज-सज्जा को दे रखी है। अगर हमारे घर में बच्चा है और पूरा दिन हमारा घर एकदम व्यवस्थित है तो बच्चा निश्चित तौर पर वह सब कर रहा है, जो हमें पसंद है और जो हम उससे उम्मीद कर रहे हैं।

बच्चा वह तो कतई नहीं कर पा रहा है जो उसे अच्छा लगता है। जबकि बच्चे के समग्र विकास के लिए जरूरी है कि उसको वह सब करने दिया जाए जो वह करना चाहे। बच्चे घर में अगर तोड़-फोड़ कर रहे हैं, पानी ढो रहे हैं, आटा घोल रहे हैं, सब्जियां फैला रहे हैं, रसोई में बर्तनों से खेल रहे हैं, पेपर फाड़ रहे हैं तो उसमें उन्हें मजा आ रहा है। वे इससे ज्यादा करेंगे भी क्या!

बेशक ये सब हरकतें हमसे देखी नहीं जाती हैं, लेकिन कुछ हरकतें कर भी लेने देनी चाहिए। बच्चों को और कई मर्तबा हमको भी मजा आता है। मसलन, एक बच्ची के नाना दोपहर में अच्छी नींद में सो रहे थे। चार साल की बच्ची उनके ऊपर जाकर बैठ गई और बोली कि नाना चलो उठो आपको गीला करना है। नाना एकदम से उठे और उन्होंने सिर्फ एक शर्त रखी कि रुक जाओ, मैं आंगन में बैठ जाता हूं।

फिर तुम जो मर्जी करना। बच्ची ने हामी भरी और तबीयत से उनको पूरा गीला किया। इस बीच हंसी-खेल का माहौल रहा। उसके बाद नाना और बच्ची, दोनों ने कपड़े बदले, नाना ने एक कप चाय पी और सब पहले जैसा ही हंसते-खेलते।

हम अंदाजा लगा सकते हैं कि इस दौरान बच्ची को कितना सुकून मिला होगा। उसके बचपन के किस्सों में यह एक और किस्सा शुमार हो चुका होगा, जिसे वह खुद भी बड़ी होकर याद करेगी और औरों को भी बता सकेगी। हम चाहे कितने भी महंगे खिलौने बाजार से लाकर बच्चों को दे दें, जो मजा उन्हें घर के सामान से खेलने में आता है, वह सुख किसी महंगे खिलौने से नहीं मिलता। यह सब करके जो खुशी उनको मिलती है, मानसिक रूप से उनको कितना स्वस्थ और मजबूत बनाए रखती है, ये समझना हम बड़ों के लिए बेहद जरूरी है।

बच्चे यह सब करते हुए क्या-क्या खोजबीन कर रहे होते हैं, इसकी तह तक जाना जरूरी है। लेकिन इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता और इसीलिए हम उन्हें वह सब करने से पूरे दिन रोकते ही रहते हैं। बल्कि उससे वह सब करवाते हैं जो उनके लिए बोरियत भरा होता है। छोटे बच्चे बोल नहीं पाते कि उन्हें बड़े क्यों नहीं समझ पा रहे, इसलिए रो रोकर घर सिर पर उठा लेते हैं और बड़े उन्हें जबरन चुप कराते हैं, अपनी सुविधा के लिए।

हालांकि अगर बच्चे बोल भी पाते हैं तो उन्हें डांट-डपट कर या पिटाई करके एक जगह बैठा दिया जाता है। बच्चों की परवरिश आसन नहीं है। अच्छी परवरिश बच्चों पर खूब पैसा लुटाना नहीं है, बल्कि उनको समझना, उनके साथ समय बिताना, उनको वह सब अपने मार्गदर्शन में करने की आजादी देना है, जिससे उनके दिमाग खुल सकें, न कि वे संकीर्ण होते चले जाएं। उनको एक दिशा देना चाहिए, ताकि वे दुनिया को अपने इर्द-गिर्द हर उस चीज को अपने अनुभव और अवलोकन से समझ सकें।

दरअसल, बच्चों की एक अलग दुनिया होती है। उस दुनिया में उनको दिन और रात का भी भान नहीं होता। अगर बच्चों की परवरिश के दौरान उन्हें बारीकी से समझे जाने की थोड़ी-सी कोशिश की जाए तो यही सामने आएगा कि बच्चों को सिर्फ वह काम करने में मजा आता हैं, जिन्हें करना वे खुद तय करते हैं। बच्चे कोई भी काम करते वक्त क्या सोच रहे होते हैं, यह समझने के लिए उनके स्तर तक जाकर समझना होगा।

बस हम मां-बाप बच्चों को पैदा करने का गुरूर और एहसान उन पर न थोपते हुए उनके मार्गदर्शक साथी की तरह अपने बच्चों के साथ पेश आएं। कोमल मन-मस्तिष्क पर थोपी गई बातें बोझ बन जाती हैं और आगे चलकर वही बातें बच्चों के व्यक्तित्व को कई तरह की नकारात्मक प्रवृत्तियों का शिकार बना देती हैं। यह मनोविज्ञान से जुड़ा ऐसा पहलू है, जिस पर सोचना हमारे समाज में शायद ही कभी जरूरी समझा जाता है। जबकि यह पहलू हमारे व्यक्तित्व के निर्माण को गहरे प्रभावित करता है।